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मांडुक्योपनिषद

वेद में तीन कांड है, एक का नाम है कर्मकांड, दूसरा है उपासना कांड, तीसरा है ज्ञान कांड। कर्मकांड में यदि हम विधि से ना करें तो पुण्य की जगह पाप भी हो जाता है। इसलिए कर्मकांड में बहुत ध्यान रखना चाहिए। विधि का पालन करना चाहिए। उदाहरण में एक यह भी कर्मकांड ही है, जब आप पैर छूते हैं तो चलते में, लेटे में, पूजा पाठ करते में, भोजन करते में, छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए, दूर से हाथ जोड़ लेना चाहिए। यदि आप चलते में करते हैं तो पुण्य नहीं है,पाप है। ऐसा ही दान करने में यदि पात्र को दान नहीं देते तो भी पाप लगेगा। नशेड़ी को आप दान दे रहे हैं इसका मतलब नशा पीने के लिए आप सहयोग दे रहे हैं तो यह पाप है। दान देने में भी पाप लग जाता है। यती को स्वर्ण दान देना पाप है। सन्यासी को स्वर्ण दान नहीं करना चाहिए। यतय: कांचनं दत्वा तंबुलं ब्रह्मचारिणो। ब्रह्मचारी को पान देना पाप है और चोर बदमाश को अभय दान देना कि तुम चिंता मत करो हम संभाल लेंगे। अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है ।

अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है। हमको खुद भी नहीं पता था पर बहुत माताएं पुरुषों से ज्यादा जानती है। अभी भी कई माताएं है, यदि हम लेटे हैं तो कहती है स्वामीजी बैठ जाओ! तो पहले मैं नहीं समझा कि क्यों कहती है। हमने कहा क्यों? तो कहती है हमें प्रणाम करना है क्योंकि लेटे में प्रणाम नहीं करना चाहिए। ऐसे ही हम चलते हो तो या तो कहो कि स्वामी जी जरा रुक जाओ, हम रुक जाए तो प्रणाम करो! चलते में नहीं करना चाहिए। तो अभिप्राय है कर्मकांड में विधि का महत्व है। और यह प्रयागराज है, इसमें भी……  विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्म कथा रविनंदिनी बरनी।। 
कर्म की कथा में विधि और निषेध है। यह करना है कि नहीं करना! अर्जुन को लगा ‘मैं लड़ूंगा तो पाप लगेगा’। अब भगवान ने कहा ‘नहीं तुम्हें पाप नहीं लगेगा!’ इसके लिए गीता सुनानी पड़ी अर्थात क्षत्रिय का कर्तव्य है कि ऐसी परिस्थिति हो तो युद्ध करना। सेना में लोग भर्ती है, यदि युद्ध के समय कहने लगे कि हिंसा हो जाएगी तो…..! वे युद्ध करेंगे तो वह युद्ध करना पाप नहीं है। और कोई रोज गीता पढ़ के घर में ही लड़ने लग जाए तो? इसलिए युद्ध करना भी कब, किसे पाप है, किसे पाप नहीं है (यह समझें)। गृहस्थ धर्म है परिवार का पालन करना,नहीं करता तो पाप लगता है। आप बच्चों को पैदा कर दिया और कर्तव्य का पालन नहीं करते हो तो ठीक नहीं। अर्थात् गृहस्थ का एक धर्म है, सन्यासी का एक धर्म है। अब यहां सब का एक ही धर्म नहीं है, सन्यासी का दूसरा धर्म है, गृहस्थ का अलग धर्म है, ब्रह्मचारी का अलग है। इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास यह आश्रम है। किस आश्रम वाले को क्या करना चाहिए, ब्रह्मचारी को क्या करना है क्या नहीं करना है, गृहस्थ को क्या करना है क्या नहीं करना है, इसी तरह से सन्यास में भी। इसलिये कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए । जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए।

कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए। जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां तक दीक्षा में भी यही है। मुझे स्मरण हैं मेरे बड़े भाई को किसी ने कहा ‘दीक्षा ले लो मेरे गुरुदेव से, तो उन्होंने कहा’ अभी हम नहीं लेंगे अभी हमसे नियम का पालन नहीं होगा, इसलिए अभी हम नहीं लेंगे’। तो आप मंत्र को नहीं समझते। तो यह  सन्यास के ही लिए नहीं है मंत्र लेने के लिए भी है। जो गुरु की आज्ञा नहीं मान सकता, उनके बताए नियम का पालन नहीं करता उसे दीक्षा नहीं लेना चाहिए। तो उद्देश्य है…..विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्मकथा रविनंदिनी बरनी।। तो एक तो जमुना नदी है और दूसरी यहां गंगा है भक्ति की तरह। भगवान की कथा, उपासना, भक्ति यह गंगा है, कर्म जमुना है, और ब्रह्मज्ञान सरस्वती है ब्रह्म की चर्चा। तो…. अभी यहां पर इकट्ठे हुए हो तो वैसे भी यहां गंगा, जमुना, सरस्वती का संगम है और सत्संग में भी है। क्या करना ,क्या नहीं करना, यह सीख के पालन करो तो जमुना हो गई, भगवान की चर्चा भगवान का ध्यान-भजन ,जाप करते हो तो यह गंगा हो गई और ब्रह्म की कथा जब सुनोगे तो सरस्वती हो गई । तो दोनों तरह का इस समय यहां संगम है। कथा में भी प्रयागराज होता है और इस समय  दो प्रयागराज चल रहे हैं। वैसे भी प्रयागराज में हो और सत्संग का भी प्रयागराज है। यहां जिन्हें ब्रह्मज्ञान चाहिए वह भी मिलेगा, कर्मकांड आदि चाहिए तो वह भी मिलेगा और भगवान की उपासना भी।

उपासना के लिए भी एक सूत्र है ध्यान का। हम ध्यान कई तरह से कर सकते हैं, पिता का ध्यान, गुरु का ध्यान, प्रकाश का ध्यान, आकाश का ध्यान, भगवान राम का ध्यान, कृष्ण का ध्यान, यह साकार ध्यान है, यह हम सब कर सकते हैं। और…. सुषुप्ति का ध्यान, स्वप्न का ध्यान ‘स्वप्ननिद्रालंबनं वा’ स्वप्न और निद्रा का आलंबन करके ध्यान कर सकते हो। सहारा लेकर, आलंबन माने सहारा लेकर। तो नींद का सहारा ध्यान में लो। तो…. गहरी नींद का क्या सहारा है? नींद में आपको कौन सा दुख था? नींद में आपको कौन सी चिंता थी? नींद में गहरे में कौन सी कामना थी? अर्थात् गहरी नींद आपका अनुभव है और जिसका अनुभव है उसका ध्यान आसान है। ऐसा एक भी नहीं आया होगा शरीरधारी जिसको नींद का पता ना हो। ऐसा अनुभव तुम्हें जीवन में हुआ है जब तुम्हें दुख ना था, चिंता न थी, कामना न थी? और वह कब अनुभव हुआ? बोलो! गहरी नींद में यह अनुभव सबको प्राप्त हो गया है जहां तुम्हें कोई कामना नहीं है, जहां कोई भय नहीं था, जहां कोई चिंता नहीं थी, कुछ नहीं चाहते थे, यहां तक गलती का भय भी नहीं था। कोई गलती हो जाए तो डर लगता है पर गहरी नींद में डर नहीं था। (गहरी नींद) अनुभूत सत्य है जहां तुम्हें कोई भय नहीं था ।आप नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं है। वहां कोई कामना नहीं थी । भगवान बड़ा कृपालु है, तुमको भेंट में गहरी नींद दे दी है। चाहो तो आप उसका सहारा ध्यान में ले सकते हो अर्थात् नींद के लक्षण ध्यान में ले आओ, पूरा स्मरण नींद का करो। आप क्या चाहते थे? क्या कमी थी ? क्या भय था ? तो……. ध्यान में बैठकर गहरी नींद की याद करो जहां तुम्हारे पास कोई दुख चिंता भय नहीं  । और इसको ( बुद्धि की अवस्थाएं) समझना हो तो मांडुक्योपनिषद जरूर पढ़ो। मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है।

मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है। मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है और मनुष्य मात्र की तीन अवस्थाएं होती है- जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति। तो एक तो गहरी नींद का स्मरण करना ध्यान है। स्मरण करो गहरी नींद में क्या था! धीरे-धीरे होश पूर्वक नींद में प्रवेश करो। बहुत पहले जब मैं ध्यान कराता था तो यह लाइन जरूर बोलता था –  ‘सब प्रपंच निज उदर मेलि  सोवे निद्रा तजि योगी।।’ 
इस लाइन को याद रखो, सब प्रपंच जैसे नींद में कोई प्रपंच नहीं था, सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजी…. निद्रा तज कर सो गए, बिना नींद के सोए जैसा हो जाए, नींद के बिना सोवे, होश में सोए जैसा हो जाए और धीरे-धीरे चलते फिरते भी अंतः चेतना में सोए जैसा हो जाए। ना कोई कामना है ना कोई भय है! इसलिए भगवान ने गीता में कहा-  विहाय कामान् य: सर्वान् पूमान्श्चरति निस्पृह:।।
सभी कामनाएं छोड़कर विचरण करें । नींद में कोई कामना थी क्या? नहीं! तो जागृत में भी कामना रहित …..कुछ नहीं पाना !स्वर्ग नहीं पाना !थोड़ा समझ लिया हो तो अमर नहीं होना क्योंकि (अमर) हो ! सुख नहीं ढूंढना क्योंकि सुख स्वरूप हो ! सुख स्वरूप होकर सुख को भूल गए और भटक रहे हो सुख के लिए? रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है ,पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”!

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

उदाहरण

गुरुदेव इतनी सरल भाषा में वेदांतदर्शन समझाते हैं कि कभी कभी विश्वास नहीं होता कि जिसके लिए बड़े बड़े ज्ञानी लोग कितना भटके यहाँ गुरुदेव के चरणों में बैठ कर उस बंधे हुए ज्ञान को सरलता से गांठ की तरह खोल देते हैं।

देखो, यह एक गाँठ है। (एक कपड़े में अलग-अलग तीन गाँठें लगाईं)। पहले नंबर की गाँठ का नाम रख लो जाग्रत, दूसरे नंबर की गाँठ का नाम  स्वप्न और तीसरे नंबर का  नाम सुषुप्ति।  अब ये तीनों चक्कर लगाएंगी। जब पहली चली जाती है तो दूसरी आती है।  जब दूसरी चली जाती है तब तीसरी आ जाती है। और जब तीसरी जाती है तब फिर पहली वाली आ जाती है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है । इनमें कोई भी परमानेंट नहीं है और किसी ने किसी को देखा भी नहीं है। कोई एक चौथा है जिसने पहली को भी देखा, दूसरी को भी देखा और तीसरी को भी देखा। वही चौथा बता पाता है कि जाग्रत आया था फिर स्वप्न आया फिर सुषुप्ति आयी थी। अर्थात्  इन का गवाही कौन है, साक्षी कौन है ? क्या जाग्रत मेरी गैरहाजिरी में हुई? स्वप्न, सुषुप्ति क्या मेरी गैरहाजिरी में हुईं? क्या सुषुप्ति(गहरी नींद)  जाग्रत की गवाह है या जाग्रत सुषुप्ति की गवाह है? इन तीनों में जो गवाह है वह आप हैं।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

अपना जगत खो कर स्वयं जगत हो जाओ

मन के अमन हो जाने पर द्वैत नहीं रहता। द्वैत तो है ही मन के खड़े होने पर। बाहरी द्वैत देह के अभिमान में है। भीतरी द्वैत मन के रहते है। स्मृति में भी जो है वह भी द्वैत है और वह भी आपके मन के कारण है। मन नींद में चला गया तो द्वैत गया। मन आत्मा में चला गया तो द्वैत खो गया।  द्वैत नींद में भी नहीं रहता।  यहाँ नींद का अर्थ है- गहरी नींद।  कई बार ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर गलती कर जाते हैं क्योंकि नींद का हम दो जगह प्रयोग करते हैं। सपनों के समय की नींद को भी नींद कहती हैं और गहरी नींद को भी नींद कहते हैं और सच तो यह है कि जगत के देखने को भी हम नींद ही कहते हैं। इसलिए तीनों अवस्थाएं स्वप्न हैं।  मैं सो गया था, यह भी स्वप्न है। मैं स्वप्न में था यह भी स्वप्न है। मैं आदमी हूँ, जगत है; यह भी स्वप्न है।  केवल जागना है-  मैं ब्रह्म हूँ और कुछ नहीं हूँ।  जागना उसी को कहते हैं जिस सेकंड में जागे हो करके तुम्हारे सिवा कुछ नहीं है। इसलिए ब्रहम ज्ञानी का जगत खो जाता है।

ज्ञान क्यों नहीं हो पाता


बोध क्यों नहीं हो पाता? इसलिए कि जिस चीज का बोध करना है, उससे संबंधित सजातीय परमाणु या अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए। क्योंकि, जिस विषय का बोध होगा-जिस दृश्य का बोध होता है- उसके सजातीय अंश देखने वाले हिस्से में कुछ-न-कुछ सूक्ष्म रूप में होना चाहिए।अन्यथा उस वस्तु को पकड़ा नहीं जा सकता। आप यह बात व्यवहारिक रुप से रेडियो में देखते हैं। जिस स्टेशन के शब्द पकड़ने होते हैं, वह हिस्सा रेडियो में भी होना अनिवार्य है। यदि , रेडियो में वह स्टेशन नहीं होता, तो उस स्टेशन के शब्द पकड़े नहीं जा सकते। अतः जिस चीज को हम पकड़ते हैं, उसका सूक्ष्म अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए , नहीं तो वह चीज पकड़ी नहीं जा सकती।
यदि किसी चीज को देखना है, तो दृश्य में भले ही उतनी चेतना न हो; लेकिन ,दृश्य का हिस्सा (अंश ) दृष्टा में भी होना जरूरी है। इसीलिए, बिना दृश्य के लिए हुए दृष्टा सिद्ध नहीं होता। यदि शब्द ग्रहण करना हो, तो जिस चीज से शब्द की उत्पत्ति हुई है, उसका कुछ -न- कुछ हिस्सा कान में होना जरूरी है। इसीलिए, श्रोत्र इंद्रिय का निर्माण भी आकाश से हुआ है। उसी से शब्द ‌का भी निर्माण हुआ है। जिससे नेत्र इंद्रिय की उत्पत्ति हुई है, उसी से रूप की उत्पत्ति हुई है, रूप भी तेज का है और नेत्र इंद्रिय भी तेज की है। फिर आप कहेंगे दो क्यों हैं? इसीलिए कि एक देखे और एक दिखाई दे। इसका हम अभी स्पष्टीकरण करेंगे।

दृश्य द्रष्टा के विषय को स्पष्ट करने का मेरा विचार है। दृश्य और दृष्टा दोनों ही एक हैं। इसके समझने के लिए एक उदाहरण चुना है। जिस लकड़ी को जलाना होता है, उसको हम कहते हैं लकड़ी है घास है और जिससे जलाते हैं, उसे कहते हैं आग है। जिसे लकड़ी कहते हैं, उस लकड़ी में भी आग होती है; नहीं तो कोई भी आग से लकड़ी को नहीं जला पाता। यह वैज्ञानिक सत्य है कि यदि लकड़ी में आग अव्यक्त रूप में ना हो, तो कोई भी उसको नहीं जला सकता। अव्यक्त आग, जो लकड़ी में विद्यमान है, वह व्यक्त अग्नि के स्पर्श से व्यक्त हो जाती है और उस लकड़ी को जलाना शुरू कर देती है। अव्यक्त को व्यक्त होना चाहिए। चाहे वह लकड़ी के घर्षण द्वारा हो या जली आग के द्वारा हो या अपने आप घर्षणों से हो। कई बार दो लकड़ियां आपस में रगड़ती रहती हैं और उनमें आग प्रकट हो जाती है। अप्रकट अग्नि, जब प्रकट होती है, तो जलाना शुरु कर देती है।
आप जिससे वस्तु को जलाते हैं, उसको कहते हैं आग और जिसको जलाते हैं, उसको कहते हैं ईंधन, लकड़ी, कोयला आदि। लेकिन,जिसको आप आग कहते हैं,करता उसमें लकड़ी बिल्कुल भी नहीं है? क्या ऐसी आग आपने जिन्दगी में देखी है, जिसमें लकड़ी बिल्कुल न हो? दाहक आग लकड़ी का वह हिस्सा है, जो अग्नि के अधिकार में आ चुका है।जो दग्ध हो चुका है, उसमें स्थूलता तो काफी अंशो में विनष्ट हो गई है; लेकिन, फिर भी उसके अंदर लकड़ी के अवयव हैं, जो अग्नि रूप में हो गए हैं । उसको हम आग कहने लग गए हैं जो लकड़ी का हरूप में दिखती है उसे हम इंधन कहते हैं।
दृष्टा किसे कहते हैं? प्रकृति का जो हिस्सा चैतन्य से एकीभूत हो चुका है; जिस पर चेतन्य ने अपना अधिकार पा लिया है; जो चैतन्य का रूप हो सकता है; चैतन्य की चैतन्यता जिसमें प्रतिबिंबित हो गई है; विशेष हो गई है; वह दृष्टा है। मान लो आप कह दें कि दोनों ही लकड़ियां हैं। एक लकड़ी, दूसरी लकड़ी को जलाती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि अग्नि की कोई शक्ति में होती, तो लकड़ी को लकड़ी नहीं जला सकती। इसीलिए, अग्नि तो दोनों लकड़ियों में व्याप्त है- एक में प्रकट रूप में है, दूसरी में अप्रकट रूप में। जिसमें प्रकट रूप में अग्नि है, उसे दृष्टा, दग्धा और जलाने वाली अग्नि कहते हैं। जिसमें अग्नि अप्रकट है, उसे ईंधन कहते हैं।

सुसुप्ति और समाधी


अभी एक और रह गया है “दर्शन”, उसको हमने स्पष्ट नहीं किया। दृष्टा दृश्य दो ही भाषते हैं। दृष्टा , दृश्य से भिन्न होता है। दृष्टा और दृश्य से जो संबंध जोड़ता है, उसका नाम दर्शन है। दृष्टा और दृश्य के बीच दूरी होती है।यदि संबंध न जुड़े, तो लकड़ी अलग पड़े रहे और जलती हुई आग अलग पड़ी रहे। और दोनों का संबंध जोड़ने के लिए कुछ और लकड़ियां चाहिए, जो यहां से वहां तक आग कर दें। आग से लकड़ियों को जोड़ दें। जहां से जलती हुई आग उसे पकड़ ले, जो दूर है। इसी प्रकार अंत:करण अंदर है,शरीर बाह्य है, विषय बाह्य हैं। शरीर जड़ और अंत:करण सचेतन है। यद्यपि चेतन नहीं है, चूंकि इसमें चेतना प्रकट है, इसीलिए उसको दृष्टा कहना पड़ता है। उसकी अपेक्षा शरीर जड़ता वाला है; इसलिए उसे दृश्य कहना पड़ता है। यदि द्रष्टा द्रश्य को देखने के लिए प्रवृत्त होगा, तो उसकी चेतना की धारा दृश्य तक बह कर संबंध जोड़ा करती है।
आप देखते हैं कि केंद्र और परिधि को जोड़ने वाला कौन होता है? रेडियस (त्रिज्या) और व्यास। यदि वह न हो, तो कभी भी केंद्र और परिधि का संबंध नहीं हो सकता। बल्कि, परिधि बनती ही नहीं। इसी प्रकार से शरीर परिधि है और दृष्टा केंद्र है। दृष्टा के द्वारा जो वृत्ति स्फुरित होती है वह वृत्ति शरीर तक आती है, यदि, वृत्ति का उत्थान ना हो, तो शरीर का बोध नहीं होगा। जब वृत्ति अंदर लौट जाती है–चाहे वृत्ति निद्रा के द्वारा समिट जाते, चाहे समाधि के द्वारा-तो शरीर का बोध नहीं होता।जब व्यक्ति समाधि में जाता है; जागते हुए अपनी वृत्तियों को समेट लेता है; तो शरीर का ज्ञान समाप्त हो जाता है; सुनना समाप्त हो जाता है; व्यवहार समाप्त हो जाता है और वह शून्य होकर स्वयं में शान्त हो जाता है।

सोचो!

“एक अभ्यास को काटने के लिए दूसरा अभ्यास  चाहिए विरोधी। तो सोते समय, सोने के पहले ‘लेटा हूं’ मान कर मत सो, ‘दृष्टा हूं’ सचमुच यह स्मरण करने के बाद सो जाओ।” कुछ देर दृष्टा  और लेटे समय दृष्टा तो चलते समय भी दृष्टा, बैठे समय भी दृष्टा! देह चलता हो बैठा हो लेटा हो, देह की स्थिति  बदलेगी। पर “बैठे में भी दृष्टा, लेटे में भी दृष्टा, चलते में भी दृष्टा! इसको मंत्र(समझो)! जो मंत्र दिया जाता है वह मंत्र नहीं, यह मंत्र है। और दृष्टा ही …...”एको देवा सर्वभूतेषुगूढ़ा सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा कर्माध्यक्ष सर्वभूतादिवासा साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।” मैं ब्रह्म हूं इसका शायद विश्वास करना पड़ेगा, ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रमाण चाहिए, अनुभव चाहिए। पर द्रष्टा होने के लिए आपको कहीं से उधार अनुभव नहीं लाना। सिर्फ एक बता दिया, “आप हो द्रष्टा, सचमुच दृष्टा हो! यदि देह के दृष्टा ना होते तो ‘मैं देह हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता, ‘बैठा हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता। बैठा हूं यह ख्याल बाद में आया, किसको? दृष्टा को! इससे सरल कोई चीज नहीं हो सकती।” मुझे बहुत याद नहीं है पर फिर भी शायद ऐसा ही है, महर्षि रमण ने  सोहम् कहने को मना किया है, शिवोsहम् कहने को भी मना किया है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ भी शायद नहीं कहा। क्याेंकि उसमें शायद कुछ लाना पड़ता है। पर “दृष्टा होने में कुछ लाना नहीं पड़ता, कोई शास्त्र नहीं, कोई और चीज लानी नहीं” तुम देह को जानते हो इसलिए इस अभ्यास में कोई कठिनाई नहीं है। हां, प्रमाद है, आलस्य है, लापरवाही हो सकती है गर ध्यान ना दो। पर दृष्टा तो हो! और “दृश्य से दृष्टा भिन्न होता है। दृश्य और दृष्टा एक हो नहीं सकते।” हमको जब पढ़ाया जाता था तो यह बताते थे – घटदृष्टा घटाद्भिन्ना।। घड़ा का देखने वाला घड़े से अलग होता है। इसी तरह देह का दृष्टा भी देह से भिन्न होता है। दूर नहीं कहते, भिन्न! जैसे यह उंगली दूसरी उंगली से भिन्न है। भिन्न  माने कितनी दूर? जैसे एक हाथ दूसरे हाथ से भिन्न है। देखो यह दो हाथ है, दायां और बायां, दोनों भिन्न है। ठीक है?  जुड़े हो तब भी भिन्न है। तो तुम पास हो या दूर हो? तुम दो चार मिल देह से दूर चले जाओगे, चले जाओ तब द्रष्टा हो गए या देह से अलग हो गए? ऐसा भ्रम मत पालो! “देह दृश्य है, तुम दृष्टा हो! कितने नजदीक हो, तो भी द्रष्टा हो, देह दृश्य है! देह द्रष्टा नहीं है और दृष्टा देह नहीं है! यह अभ्यास आज से शुरू करो।”

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।

कर्म-धर्म

हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”