वेद में तीन कांड है, एक का नाम है कर्मकांड, दूसरा है उपासना कांड, तीसरा है ज्ञान कांड। कर्मकांड में यदि हम विधि से ना करें तो पुण्य की जगह पाप भी हो जाता है। इसलिए कर्मकांड में बहुत ध्यान रखना चाहिए। विधि का पालन करना चाहिए। उदाहरण में एक यह भी कर्मकांड ही है, जब आप पैर छूते हैं तो चलते में, लेटे में, पूजा पाठ करते में, भोजन करते में, छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए, दूर से हाथ जोड़ लेना चाहिए। यदि आप चलते में करते हैं तो पुण्य नहीं है,पाप है। ऐसा ही दान करने में यदि पात्र को दान नहीं देते तो भी पाप लगेगा। नशेड़ी को आप दान दे रहे हैं इसका मतलब नशा पीने के लिए आप सहयोग दे रहे हैं तो यह पाप है। दान देने में भी पाप लग जाता है। यती को स्वर्ण दान देना पाप है। सन्यासी को स्वर्ण दान नहीं करना चाहिए। यतय: कांचनं दत्वा तंबुलं ब्रह्मचारिणो। ब्रह्मचारी को पान देना पाप है और चोर बदमाश को अभय दान देना कि तुम चिंता मत करो हम संभाल लेंगे। अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है ।
अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है। हमको खुद भी नहीं पता था पर बहुत माताएं पुरुषों से ज्यादा जानती है। अभी भी कई माताएं है, यदि हम लेटे हैं तो कहती है स्वामीजी बैठ जाओ! तो पहले मैं नहीं समझा कि क्यों कहती है। हमने कहा क्यों? तो कहती है हमें प्रणाम करना है क्योंकि लेटे में प्रणाम नहीं करना चाहिए। ऐसे ही हम चलते हो तो या तो कहो कि स्वामी जी जरा रुक जाओ, हम रुक जाए तो प्रणाम करो! चलते में नहीं करना चाहिए। तो अभिप्राय है कर्मकांड में विधि का महत्व है। और यह प्रयागराज है, इसमें भी…… विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्म कथा रविनंदिनी बरनी।।
कर्म की कथा में विधि और निषेध है। यह करना है कि नहीं करना! अर्जुन को लगा ‘मैं लड़ूंगा तो पाप लगेगा’। अब भगवान ने कहा ‘नहीं तुम्हें पाप नहीं लगेगा!’ इसके लिए गीता सुनानी पड़ी अर्थात क्षत्रिय का कर्तव्य है कि ऐसी परिस्थिति हो तो युद्ध करना। सेना में लोग भर्ती है, यदि युद्ध के समय कहने लगे कि हिंसा हो जाएगी तो…..! वे युद्ध करेंगे तो वह युद्ध करना पाप नहीं है। और कोई रोज गीता पढ़ के घर में ही लड़ने लग जाए तो? इसलिए युद्ध करना भी कब, किसे पाप है, किसे पाप नहीं है (यह समझें)। गृहस्थ धर्म है परिवार का पालन करना,नहीं करता तो पाप लगता है। आप बच्चों को पैदा कर दिया और कर्तव्य का पालन नहीं करते हो तो ठीक नहीं। अर्थात् गृहस्थ का एक धर्म है, सन्यासी का एक धर्म है। अब यहां सब का एक ही धर्म नहीं है, सन्यासी का दूसरा धर्म है, गृहस्थ का अलग धर्म है, ब्रह्मचारी का अलग है। इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास यह आश्रम है। किस आश्रम वाले को क्या करना चाहिए, ब्रह्मचारी को क्या करना है क्या नहीं करना है, गृहस्थ को क्या करना है क्या नहीं करना है, इसी तरह से सन्यास में भी। इसलिये कोई भी आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए । जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए।
कोई भी आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए। जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां तक दीक्षा में भी यही है। मुझे स्मरण हैं मेरे बड़े भाई को किसी ने कहा ‘दीक्षा ले लो मेरे गुरुदेव से, तो उन्होंने कहा’ अभी हम नहीं लेंगे अभी हमसे नियम का पालन नहीं होगा, इसलिए अभी हम नहीं लेंगे’। तो आप मंत्र को नहीं समझते। तो यह सन्यास के ही लिए नहीं है मंत्र लेने के लिए भी है। जो गुरु की आज्ञा नहीं मान सकता, उनके बताए नियम का पालन नहीं करता उसे दीक्षा नहीं लेना चाहिए। तो उद्देश्य है…..विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्मकथा रविनंदिनी बरनी।। तो एक तो जमुना नदी है और दूसरी यहां गंगा है भक्ति की तरह। भगवान की कथा, उपासना, भक्ति यह गंगा है, कर्म जमुना है, और ब्रह्मज्ञान सरस्वती है ब्रह्म की चर्चा। तो…. अभी यहां पर इकट्ठे हुए हो तो वैसे भी यहां गंगा, जमुना, सरस्वती का संगम है और सत्संग में भी है। क्या करना ,क्या नहीं करना, यह सीख के पालन करो तो जमुना हो गई, भगवान की चर्चा भगवान का ध्यान-भजन ,जाप करते हो तो यह गंगा हो गई और ब्रह्म की कथा जब सुनोगे तो सरस्वती हो गई । तो दोनों तरह का इस समय यहां संगम है। कथा में भी प्रयागराज होता है और इस समय दो प्रयागराज चल रहे हैं। वैसे भी प्रयागराज में हो और सत्संग का भी प्रयागराज है। यहां जिन्हें ब्रह्मज्ञान चाहिए वह भी मिलेगा, कर्मकांड आदि चाहिए तो वह भी मिलेगा और भगवान की उपासना भी।
उपासना के लिए भी एक सूत्र है ध्यान का। हम ध्यान कई तरह से कर सकते हैं, पिता का ध्यान, गुरु का ध्यान, प्रकाश का ध्यान, आकाश का ध्यान, भगवान राम का ध्यान, कृष्ण का ध्यान, यह साकार ध्यान है, यह हम सब कर सकते हैं। और…. सुषुप्ति का ध्यान, स्वप्न का ध्यान ‘स्वप्ननिद्रालंबनं वा’ स्वप्न और निद्रा का आलंबन करके ध्यान कर सकते हो। सहारा लेकर, आलंबन माने सहारा लेकर। तो नींद का सहारा ध्यान में लो। तो…. गहरी नींद का क्या सहारा है? नींद में आपको कौन सा दुख था? नींद में आपको कौन सी चिंता थी? नींद में गहरे में कौन सी कामना थी? अर्थात् गहरी नींद आपका अनुभव है और जिसका अनुभव है उसका ध्यान आसान है। ऐसा एक भी नहीं आया होगा शरीरधारी जिसको नींद का पता ना हो। ऐसा अनुभव तुम्हें जीवन में हुआ है जब तुम्हें दुख ना था, चिंता न थी, कामना न थी? और वह कब अनुभव हुआ? बोलो! गहरी नींद में यह अनुभव सबको प्राप्त हो गया है जहां तुम्हें कोई कामना नहीं है, जहां कोई भय नहीं था, जहां कोई चिंता नहीं थी, कुछ नहीं चाहते थे, यहां तक गलती का भय भी नहीं था। कोई गलती हो जाए तो डर लगता है पर गहरी नींद में डर नहीं था। (गहरी नींद) अनुभूत सत्य है जहां तुम्हें कोई भय नहीं था ।आप नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं है। वहां कोई कामना नहीं थी । भगवान बड़ा कृपालु है, तुमको भेंट में गहरी नींद दे दी है। चाहो तो आप उसका सहारा ध्यान में ले सकते हो अर्थात् नींद के लक्षण ध्यान में ले आओ, पूरा स्मरण नींद का करो। आप क्या चाहते थे? क्या कमी थी ? क्या भय था ? तो……. ध्यान में बैठकर गहरी नींद की याद करो जहां तुम्हारे पास कोई दुख चिंता भय नहीं । और इसको ( बुद्धि की अवस्थाएं) समझना हो तो मांडुक्योपनिषद जरूर पढ़ो। मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है।
मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है। मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है और मनुष्य मात्र की तीन अवस्थाएं होती है- जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति। तो एक तो गहरी नींद का स्मरण करना ध्यान है। स्मरण करो गहरी नींद में क्या था! धीरे-धीरे होश पूर्वक नींद में प्रवेश करो। बहुत पहले जब मैं ध्यान कराता था तो यह लाइन जरूर बोलता था – ‘सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजि योगी।।’
इस लाइन को याद रखो, सब प्रपंच जैसे नींद में कोई प्रपंच नहीं था, सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजी…. निद्रा तज कर सो गए, बिना नींद के सोए जैसा हो जाए, नींद के बिना सोवे, होश में सोए जैसा हो जाए और धीरे-धीरे चलते फिरते भी अंतः चेतना में सोए जैसा हो जाए। ना कोई कामना है ना कोई भय है! इसलिए भगवान ने गीता में कहा- विहाय कामान् य: सर्वान् पूमान्श्चरति निस्पृह:।।
सभी कामनाएं छोड़कर विचरण करें । नींद में कोई कामना थी क्या? नहीं! तो जागृत में भी कामना रहित …..कुछ नहीं पाना !स्वर्ग नहीं पाना !थोड़ा समझ लिया हो तो अमर नहीं होना क्योंकि (अमर) हो ! सुख नहीं ढूंढना क्योंकि सुख स्वरूप हो ! सुख स्वरूप होकर सुख को भूल गए और भटक रहे हो सुख के लिए? रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है ,पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”!