जिसको तुम बुद्धि कहते हो उसको योग वशिष्ठ कहती है- पहले इस पशु बुद्धि का त्याग करो। आप पशु हो क्या ? यदि तुम मानते हो कि मैं मर जाऊंगा तो तुम अपने को कुछ भी मानो, लेकिन जानवर ही हो। मानते रहो, तुम अपने को पंडित मानते रहो, अपने को कथाकार मानते रहो, अपने को विद्वान मानते रहो। भले ही समाज में पूजे जाओ पर तुम अभी भी जानवर ही हो । इसलिए इस पशु बुद्धि का त्याग करो कि तुम शरीर हो। दर्द दूर करो नहीं कहा। कोई दर्द नहीं है, आराम से लेटे हुए हो। लेटे हुए हो कि जाग रहे हो? कौन हो तुम? तुम चेतन हो कि शरीर हो? कभी आपको उत्तर सही मिला? इसलिए ‘कश्चिद्धीरः’ कोई धीर पुरुष सहज अनुभवों को लात मारकर, सहज अनुभव जो हो रहे हैं उनको उपेक्षित करके, नेति- नेति कहकर, ‘नेदं यदिदमुपासते’ यह मैं नहीं हूँ,यह मेरा दृश्य है, ये मेरी इंद्रियाँ हैं, यह मेरा मन है, यह मेरी बुद्धि है, फिर मैं कौन हूँ? यह मेरी-मेरी जिससे उठता है, यह मैं क्या चीज है ? और ये ‘मैं’ भी कितनी देर का मेहमान है? कितनी देर यह मैं-मैं बकरे वाली रहती है? भक्ति शास्त्र वाले ही बताते हैं कि बकरी जीवन भर मैं-मैं-मैं बोलती है। जब मर जाती है तो फिर उसकी ताँत बनती है फिर धुनकी में धुनने में लगती है। फिर तुं तुं तुम् बोलती है। जिंदा में मैं मैं मैं …बोलती है । और मरे में तुम् तुम् बोलती है।
आप तो मरे में भी बोलने वाले नहीं हो। इसलिए देह रहने दो, पर देह बुद्धि का त्याग करो । हमें मालूम है कि तुम पत्नी त्यागने को तैयार हो, अपना घर त्याग ने को तैयार हो; पर ‘यह मेरा है’, यह छोड़ने को तैयार नहीं हो। मुझे मालूम है कि तुम छोड़ने के बाद कहोगे कि इतना मैंने छोड़ा है । जब तेरा है ही नहीं तो छोड़ेगा क्या ? छोड़ने का मतलब है कि अभी तूने ‘मेरा‘ नहीं छोड़ा। यदि ‘यह मेरा’ छोड़ा होता तो छोड़ा क्या है, जब है ही तेरा नहीं ।
कोई कह दे कि मैंने इतना छोड़ा है। तो छोड़े तो तब जब तेरा होता। हमारे आश्रम को क्या तुम दान कर सकते हो? तुम्हारा हक है क्या? इसलिए यह कहो कि मेरा अभिमान था, वह छोड़ दिया। मैं नाम का ख्याल जो पैदा होता है नेचर से, जो नींद में चला जाता है ये प्रकृति जन्य है; यह मैं नहीं हूँ।
मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया ।
जो भी मेरे पास है वह धन किसी का है दिया।।