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स्वीकार करो


तुममें जो शक्ति है, उसको स्वीकार करो और भगवान में जो शक्ति है, वह स्वीकार करो। तुममें अल्प शक्ति है। भगवान में महत् शक्ति है। विराट निर्माण की शक्ति भगवान में ही है। गृह निर्माण, कपड़ा निर्माण और अन्य निर्माणों की शक्ति तुममें है। आंखें खोलना और मींचना यह शक्ति तुमको दी गई है। यदि तुममें यह ताकत न होती, तो सब एक समय पर ही न सो जाते; एक समय पर ही न जग जाते? बिजली देना, पावर हाउस से कनेक्शन देना, यह उसका काम है। वहां से बिजली सप्लाई करना, यह उसका काम है; लेकिन, स्विच ऑन और ऑफ करना किसका काम है? क्या यह पावर हाउस वालों का काम है? तुम्हारे घर का स्विच ऑन और आंफ करने क्या वे लोग आएंगे? जगने और सोने का स्विच ऑन और ऑफ तुम करोगे कि वे करने आएंगे? सुबह चार बजे तुम उठोगे कि भगवान उठाएंगे? तुम्हें उठने की ताकत दे दी है; तुम चाहे चार बजे उठ जाओ, चाहे आठ बजे तक सोओ। यदि इंसान, इस विषय की भी जिम्मेदारी ईश्वर पर लादता है, तो वह बेईमान नहीं है? ईमानदारी से इस बात को कहना और कल से यह कहना छोड़ देना कि सब कुछ ईश्वर करता है।
जब तक शरीर है, तुम्हारा अपना कर्तव्य है। कर्तव्य नहीं करते हो, तो तुम बेईमान हो। बदमाशी तुम करो और भगवान पर डालो। शरारत तुम करो और ईश्वर के ऊपर मढ़ दो। दो पाप हुए। पहले तो गलती की और फिर ईश्वर पर डाल दी। तुम्हारे जैसा कोई और बेईमान होगा? तुम दोहरे पापी हो। पहले तो पाप किया और फिर उस पाप का जिम्मेदार भगवान को ठहराया। तुम महा पापी हो। इस पाप का क्षय कभी भी नहीं होगा। कम- से – कम यही स्वीकार कर लेते कि गलती तुम्हारी है , तो सुधरने की गुंजाइश थी। सुधरने की गुंजाइश थी , यदि तुम गलती करते होते? लेकिन, तुमने तो गलती करके भगवान पर डाल दी और अपने को निरपराध बना लिया । इसलिए , अब तुम कभी भी निष्पाप न हो सकोगे। कभी गलती सुधार न सकोगे। जो अपनी गलतियों का जिम्मेदार किसी और को समझता हो, वह बेईमान कभी ठीक नहीं होगा। सब लोग अपने बिगड़ने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल देते हैं। आदमी जितना बेईमान, कोई जानवर भी नहीं है । आदमी महा बेईमान है।
मुस्लिम ईमान क्या है? वे ही लोग मुसलमान हैं, जिनका ईमान सही है, दुरस्त है। क्या मुसलमानों का ईमान सही है ? क्या वे सब कुरान के अनुसार चलते हैं? सिक्ख माने शिष्य। अब ये सब लोग क्या गुरु के शिष्य हैं, जो गुरुओं की वाणी में ही हेर – फेर करते हैं? ये तो गुरुओं के भी गुरु बन रहे हैं। जो गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को अपने ढंग से कहें; जो वाणी को हटाने का भी प्रयत्न करें; वे शिष्य हैं कि गुरु ? कम – से – कम सिक्ख तो सिक्ख बने रहें; मुसलमान तो मुसलमान बने रहें; मनुष्य तो मनुष्य बने रहें; तब तो बात भी है ।

धार्मिक चित्त

एक -दूसरे के विरोध के नमूने भारत और विदेश हैं। आजकल के साधुओं और गृहस्थों को पूर्णता की उपलब्धि नहीं हुई। भारत, विदेश के विज्ञान का भूखा है और विदेश भारत के अध्यात्म के भूखे हैं। गृहस्थ भोगों से अतृप्त है, शांति का भूखा है तथा सामान्य साधु – समाज, अर्थ और आश्रय का भूखा है और इसी के पाने की चिंता में निमग्न है। साधुओं में इन्हीं के लिए संघर्ष होते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से चित्त अंतर्मुख और शांत नहीं हो पाता। अशान्त और बहिर्मुख चित्त दृढ़ आत्मस्मृति को भी उपलब्ध नहीं होता। अतः, पदार्था भाव में आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से अध्यात्मिक साधन भी असंभव हो जाते हैं और चित्त पदार्थों की तरफ गतिमान होने लगता है। धर्म के अभाव में चित्त, आत्मा, परमात्मा, सत्य, मुक्ति और शांति इनके विषय में बिल्कुल ही अपरिचित रह जाता है। इनकी खोज में धार्मिक चित्त ही प्रवृत्त होता है। जो इनकी खोज में साधन रत है, उसी को मैं धार्मिक चित्त कहता हूं।
धर्मविहीन जीवन बिल्कुल बाह्य हो जाता है। उसका उद्देश्य शरीर – रक्षा, भोग -प्राप्ति, महत्त्वाकांक्षा और अधिकार- रक्षा का रूप ले लेता है। वह कठिन से कठिन श्रम करके भी इन इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता; क्योंकि; बाह्य पहलू-बाहर की यात्रा, “क्षितिज” को छूने जैसा प्रयास है; जो सदा समीप, पृथ्वी को छूता हुआ और प्राप्य भासता है। किंतु, “क्षितिज” की प्राप्ति, कठिन ही नहीं असम्भव है। मृगतृष्णा का जल दिखता है, पर, प्राप्त नहीं होता। और इसी इक्क्षा में मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक भटकता रहता है। उसे चाहिये कि किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु को खोजे उनकी शरण जाए और इसे समझे यही मानव मात्र का ध्येय और उद्देश्य होना चाहिए। यही धर्म का विज्ञान है, धर्म है। धर्म अनुशासन सिखाता है और अनुशाषित व्यक्ति ही स्वयं को जीत सकता है ये कोई बाहरी लड़ाई नही सिर्फ अंतर युद्ध शिक्षा देता है।

आत्मा का स्वभाव


एक सज्जन ने पूछा है कि आत्मा निर्गुण है, उसमें देखने का गुण नहीं हो सकता और प्रकृति जड़ है, इसलिए वह देख नहीं सकती। फिर देखा कैसे जाता है? ( देखता कौन है )?
देखना, जानना और अनुभव करना किसका धर्म है ?
परमात्मा या आत्मा, जो चैतन्य है, उसमें देखने का गुण नहीं है; क्योंकि, वह निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं होता, उसमें देखने का भी गुण नहीं होता; तभी तो उसे निर्गुण कहते हैं। निर्गुण देख नहीं सकता। प्रकृति गुण वाली है, उसमें गुण हो सकते हैं; लेकिन, वह स्वयं जड़ है; इसलिए, उसमें भी देखने का गुण संभव नहीं है। जानने का गुण संभव नहीं है। फिर यह देखना, जानना और अनुभव करना किस का गुण है? कौन अनुभव करता है? इस प्रश्न पर विचार करना है।
आप लोग यह जानते हैं कि आपको आंखों से रूप दिखाई दे रहा है और कानों से प्रवचन सुनाई पड़ रहा है। यह स्पष्ट है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। आप यह भी जानते हैं कि स्वप्न के समय इन आंखों से दिखाई देना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है। फिर यह देखना धर्म किसका है?
यदि हम दूरबीन ले लेते हैं, तो बहुत दूर तक दिखाई देने लग जाता है और यदि हम दूरबीन को उतार देते हैं, तो जिस चीज को देख रहे थे, उस चीज का दिखना बंद हो जाता है। हम एक खुर्दबीन ले लेते हैं, तो ऐसे अवयव, जो कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, दिखाई देने लगते हैं। जब हम उसे हटा देते हैं, तो दिखाई देना बंद हो जाता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो आंखों से सीधी नहीं दिखाई देती। देखना गुण क्या दूरबीन का है या खुर्दबीन का है या नेत्र का है? क्या कहेंगे? दूरबीन से वह वस्तु दिखाई पड़ती है और दूरबीन के बिना दिखाई नहीं पड़ती। तो देखने की जो सामर्थ्य है, वह नेत्र की है या दूरबीन की है?
हम इस बात को और स्पष्ट करेंगे। यदि आप देखना गुण खुर्दबीन या दूरबीन का कहेंगे, तो हम आपकी आंखें हटा लेते हैं। अब कहो खुर्दबीनें और दूरबीनें देखेंगी? एक के बाद एक कितनी ही दूरबीनें लगा दीजिए; किंतु, वस्तु का दर्शन नहीं होगा। आप यह भी जानते हैं कि यदि दूरबीन हटा लेते हैं, तो वस्तु दिखाई देना बंद हो जाती है। इस समय भी आंखों में देखने का गुण है; किंतु, दिखाई नहीं देता दूरबीन उसका साधन बनती है; साधन न होने पर दिखना बंद हो जाता है। इसी तरह आँखे भी साधन ही हैं। साधन और साध्य को समझना होगा बारीकी से जानना होगा तभी मानोगे और बुद्धि में छपेगा नहीं तो सुनने का मनोरंजन होगा कल तक सब भूल जाओगे इसलिए इसे समझने का सतत प्रयास ही इस से भलीभांति अवगत करा सकता है।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन

वृक्ष को जन्म देने के लिए, बीज को शांत होकर जमीन में बैठ जाना होगा। जब हमने शास्त्रों द्वारा सुन लिया, गुरुजनों से सुन लिया कि “मैं आत्मा हूं” या ” मैं ही ब्रह्म हूं “तो अब पाने की अभिलाषा खत्म। अभी मिला नहीं है, अनुभव में नहीं आया है, तो भी शास्त्र – बल से तुम्हारी बुद्धि, जो बहिर्मुखी थी, वह शांत हो गई। गुरु – वचनों से तुम्हें लगा कि तुम जो मर जाने वाले थे, नहीं मरते। लेकिन, अभी पूर्ण शांति नहीं आई। अभी चित्त थोड़ा सा शांत हुआ है। जब हम ही हैं, तो कहां जाएं। क्योंकि, वह हम में है, तभी बुद्धि शांत होने शुरू हुई। जब बुद्धि शांत हुई, तो अंदर का जो साक्षी है, अंदर जो चैतन्य है, अंदर जो आत्मा है, वह आंखों में आना शुरू हो जाएगा। यह हुआ ध्यान।
पहले हुआ श्रवण; फिर श्रवण किए हुए पर विचार किया। जब मन को सच्चा लगने लगा, तो बुद्धि अपने – आप वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। यह बुद्धि का नियम है। यदि तुम्हारे मन में आवे कि वहां मूत्र होने के लायक जगह है, तो वहीं मूत्र के लिए जाओगे। छोटी सी क्रिया के प्रति हम जो फैसला करते हैं, वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। जब तुम्हारे चित्त में यह फैसला हो जाए की अंदर की आत्मा अविनाशी है और वह अंदर ही है; तो आनंद की जो तलाश बाहर थी, वह रुकेगी और अंदर बैठना शुरू होगा।
इस बैठने को ही हम उपासना कहते हैं। सुनने को कर्म कहते हैं। पा जाने को (अनुभव में आ जाने को ) ज्ञान कहते हैं। यह जो सुनते हो उसे श्रवण कहते हैं। यदि तुमको सुनने में अच्छा लगे और वैसा ही तुम्हारा मन अंदर से शांत होने लगे, तो उसे “मनन” कहते हैं। तुमको यदि जंच गया और मन शांत होकर अंदर आनंद की अनुभूति होने लगी, तो उसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। अंदर साक्षात्कार न हुआ हो; परंतु, अनुभव में आने की तैयारी होने लग जाए, सच्चा लगने लग जाए; तो इसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। यदि पूर्ण साक्षात्कार हो जाए, तो श्रवण, मनन और निदिध्यासन व्यर्थ है।
ध्यान शब्द का अर्थ है “निदिध्यासन”। निदिध्यासन को कई जगह ध्यान भी कहा गया है। ध्यान का अर्थ है कि सुने हुए का अनुभव करने के लिए चित्त तद्रूप होकर शांत होता जाए। वृत्ति निश्चल होती जाए, यह ध्यान है। उस ध्यान के निश्चलता में यदि बुद्धि की वृत्ति बिल्कुल शांत होकर उस आनंद में निमग्न हो जाए, अंतर्साक्षी का अनुभव होने लग जाए, तो उसे हम साक्षात्कार कहते हैं। इसी को समाधि कहते हैं।

याद

मैं तुम्हें एक सूत्र बताता हूं। आज से जब ध्यान में बैठोगे, तो यह ख्याल करने की कोशिश करना कि तुम रहे हो या नहीं? तुम पहले से ही निर्णय मत ले लो।यह बात तुम अपने से ही पूछो,जब तुम देख रहे थे या सुन रहे थे,तब तुम्हारा ज्ञान मौजूद था क्या? नहीं तो ज्ञान तो रहेगा; ज्ञान का ज्ञान नहीं रहेगा। ध्यान का ध्यान नहीं रहेगा। मन तो रहेगा; पर, उसका पता नहीं रहेगा। साक्षी तो रहेगा; पर,सा‌क्षी का ज्ञान नहीं रहेगा। तुम देखते समय या सुनते समय अपने आप से पूछ लेना, जो तुम्हे मालूम पड़ रहा है,क्या तब ज्ञान के बिना मालूम पड़ रहा है? तुम्हें तुरन्त ही यह लगेगा कि ज्ञान का ध्यान आ गया है। द्रष्टा पर ध्यान लौट आया है।
तुम्हारा दृश्य में ध्यान लगा रहता है; विषय में ध्यान उलझा रहता है। अन्य बातों में ध्यान उलझा रहता है। यदि यह प्रश्र करोगे कि क्या अन्य की प्रतीति बिना तुम्हारे है क्या? तुम्हें तुरन्त ही अपनी याद आ जाएगी। तुम्हें अपनी याद आती रहेगी। फिर तुम कहोगे कि आज तुमको अपनी याद आती रही। याद रहेगी तो नहीं? याद आती रही। कुछ दिनों के बाद देखोगे कि अपनी याद बनी रही। फिर, इसके बाद कहोगे कि तुम्हें अपनी याद की ज़रूरत ही नहीं है; हम हैं ही। बिना हमारे कुछ होता ही नहीं है।

द्वेत जानना ही होगा


तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:


उसे कहां शोक, कहां मोह, कहां चिंता और कहां भय। ये हमारे वेद वाक्य हैं, उपनिषद् वाक्य हैं। बड़े भाग्यशाली हो, जो सुनने को मिलता है। सुनते – सुनते निष्ठा बनती है और धीरे-धीरे कमियां दूर होती हैं। कोई चाहे जैसा हो, सब में अभी कमियां हैं। सिद्ध कोई नहीं है, प्रयास करो, प्रमाद मत करो। और किसी को देखने से, अपने में कोई फर्क नहीं पड़ जाता है। इसीलिए, जो जहां तक है, ठीक है। हो सके, तो अपनी गहराई को देखते जाओ, घबराओ बिल्कुल नहीं।
अब हम अपने अंदर अभिनिवेश नहीं पाते हैं। अस्मिता नहीं, अभिनिवेश। अस्मिता के तो छोड़ने का अभ्यास करते हैं; अभिनिवेश से तो निवृत्त हैं। अभिनिवेश से मुक्त हैं; पर, अस्मिता से अभी मुक्त नहीं है। अस्मिता से मुक्त न होने के कारण “मैं” जब तक मजबूत रहता है, तब तक द्वैष और भेद भी कभी-कभी उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, मैं अलग हूं, तो मेरा सम्मान अलग, मेरी भूख अलग, मेरा जीवन और उन्नति अलग। जब तक मैं अलग हूं, तब तक मेरा सब कुछ अलग रहेगा। इसीलिए, अभी तो हम अस्मिता का अभ्यास करते हैं। हम किसी और को कैसे कह दें। ध्यान, अभ्यास और साक्षी भाव से आदमी अस्मिता पर जाता है, शरीर से पृथकता का बोध होता है।
मैं अपनी बात बताऊं। मुझे शरीर से पृथकता का तो बोध है; लेकिन, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति अभी गहरी नहीं है। यदि, सर्वत्र मैं ही हूं, यह अनुभूति गहरी हो जाएगी, तो तुम्हारे प्रति कभी विकार और क्रोध नहीं हो सकता। कहा है कि —–

“क्रोध की द्वैतक बुद्धि बिनु ,,
द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिच्छिन्न जड़,
जीव कि ईश समान।।”

ये सत्य बात है कि जिस दिन हमारे जीवन से द्वैत भाव चला जाएगा, उस दिन क्रोध भी चला जाएगा; क्योंकि , अपने – आपसे क्या कभी द्वैष होता है? अपने मित्र से और पत्नी से द्वेष हो सकता है। अपने पिता से भी लड़ाई हो सकती है; लेकिन,अपना नुकसान करने की वृत्ति कभी होती है क्या? क्या कोई अपने आप का अहित अपने आप का नुकसान करेगा? क्या कोई अपने आप को दुखी करेगा? दूसरे को दुखी देखकर खुशी होती है। दूसरा यदि आपत्ति में फंसा हो, तो परवाह नहीं होती; लेकिन, स्वयं आपत्ति में फंसे हो क्योकि द्वैत समझते हो सब ये जग तुम और तुम ये जग नही हो जाते तब तक शांति मिल नही सकती इसलिए सद्गुरु का सिखाया द्वेत समझ न आ जाये…

गुरु, शास्त्र क्यों?


गुरु तुमने किस लिए बनाया था? शास्त्र किसलिए सुने/पढ़े थे? सत्संग किस लिए करते हो? पूजा आदि किस लिए शुरू की थी? ध्यान का प्रारंभ क्यों किया था – क्या बात थी – क्या मजबूरी थी? कोई न कोई तो गड़बड़ी होगी ही, जिसके दूर करने के लिए किया होगा। गड़बड़ी दूर हो गई कि नहीं? यदि दूर हो गई हो, तो उसे भी छोड़ दो। कांटे से कांटा निकाल कर कांटा फेंक दिया जाता है। यह मैं अपनी तरफ से नहीं कहता हूं; ऐसा ही किया जाता है। यह तथ्य है।
शायद किसी को काट प्रतीत होता हो। कांटे से कांटा निकालकर कांटा फेंक दिया जाता है। लेकिन, निकालने के पहले ही फेंक दें तो? जब फेंकना ही है, तो पहले ही फेंक दें। आगे या पीछे में क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क पड़ता है कि नहीं? यदि कांटे में पड़ता है, तो ध्यान और समाधि छोड़ने में भी पहले और पीछे में फर्क पड़ता है। पहले फेंक देने से परेशानी नहीं जाएगी और परेशानी जाने के बाद फेंक देने से कोई परेशानी नहीं आएगी। इसीलिए, काम करने का जो प्रयोजन है, वह पूरा हो जाना चाहिए।
शास्त्र का भी अपना कोई प्रयोजन है कि बुद्धि को सूक्ष्म कर दे। जो बुद्धि बहिर्मुख है, उसे अंतर्मुख होने को तैयार कर दे। जो भगवान् हमने बाहर समझा है शास्त्र उन्हें तुम्हारे अंदर ही बता दे। शास्त्र तुम्हें भगवान् को पकड़कर नहीं देगा? उसका एक ही प्रयोजन है। जब उसने बता दिया कि भगवान तुम्हार अन्दर है, तो अपने अंदर शांत होकर ध्यान शुरू करो। सुनने के बाद ध्यान और समाधि शुरू करो। सुनने के पहले नहीं। पहले शास्त्र द्वारा परमात्मा को समझो, पढ़ो और विचारों की क्या चीज है, कहां है, कैसा है? जब पढ़ लोगे, तब पता चलेगा कि परमात्मा सर्वत्र है। हममें भी परमात्मा है, यह भी नहीं; बल्कि हम परमात्मा हैं। जब यह जान लिया, तो फिर बाहर की तलाश बंद। जब आप ध्यान के योग्य हो गए, अब आप समाधि के योग्य हो गए। जब परमात्मा हममें ही है, तो क्यों भटके? क्यों कहीं जाएं? केवल शांत होकर बैठ जाएं।

लक्षण

आप जब लड़के से गुस्सा हुए तब थप्पड़ मारा। क्या उसके बाद आपने शांत मन से बच्चे से बात की? क्या दिन भर में कभी उसे समझाया? नहीं समझाया। तो फिर यह थप्पड़ तुम्हारा क्रोध था, प्रतिक्रिया थी। आपको जब गुस्सा न आए तब बच्चे से बात करो। क्रोध में बात ना करो। यदि क्रोध आया है तो ठंडे रहो। जब क्रोध पूरा उतर जाए तब बात करो। लेकिन जब पूरा उतर जाएगा तब आप बात ही नहीं करते । फिर कहते हो कि अब तो बात ही खत्म हो गई। हमारा आपसे उल्टा है। हमें जब क्रोध उतर जाता है तब खोज करते हैं कि इसके पीछे कारण क्या था? और आपका जब क्रोध उतर जाता है तो जानना ही नहीं चाहते कि क्रोध क्यों आया था? क्यों नहीं जानना चाहते? ऐसे ही जब आपको आनंद है तो ब्रह्म को जानना ही नहीं चाहते। जबकि तुम्हें जानना चाहिए। इसलिए धैर्य की बड़ी आवश्यकता है। खुशी में फूलों नहीं, दुःख में भूलो नहीं। जानने के लिए तैयार रहो। इसलिए कश्चित् धीरः कोई धीर पुरुष ही इस आत्मा को जान सकता है। नहीं तो खुशी में फूल जाएंगे, दुःख में भूल जाएंगे और आत्मा के जानने का समय ही निकल जाएगा। सिर्फ आत्मा का ही नहीं, सुधार का भी समय निकल जाएगा।

यदि तुम्हारे मन की एक बात कह दें, तुम्हारी प्रशंसा कर दें तो सब भूल गए। क्या यही जीवन का हित है? कोई पैर छू लिया तो क्या तुम्हारा भला हो गया? मनमानी कर ली तो क्या वह तुम्हारे लिए ठीक है? किसी को कोई प्यार कर ले जैसे कि आजकल नासमझ लड़के-लड़कियां कर रहे हैं, क्या वह बहुत अच्छा हो गया? धर्म गया,देश गया, संस्कृति गई। जानते हो इसके दुष्परिणाम ? जो चालाक होते हैं, खुशामदी लोग वे तुम्हें प्रिय लगने लगते हैं। इसलिए गहराई को देखो कि गहराई क्या है? इंद्रियों के विषय यदि प्रिय हैं तब भी प्रियता में धैर्य रखो । अप्रिय हैं, तब भी धैर्य रखो। हित क्या है, उस पर ध्यान दो। क्या सुख देने वाली हर क्रिया, हर पदार्थ, हर भोजन कल्याणकारी है? क्या दु:ख देने वाली कड़वी दवा, अस्वाद भोजन बुरे हैं? हम लोग तो यह भी कहते हैं कि ध्यान के सुख को भी मत लो।

न स्वादयेत सुखं कर्तृत्व निसंङ्ग प्रक्रिया भवेत।

ध्यान के सुख में नहीं फँसो, असंग बुद्धि वाले बनो। आपको तो उजाला हो जाए तो क्या कहते हो? बस, अभी तक बहुत गुरुओं के पास भटके पर आज अच्छे गुरु मिले। तुम्हें जादूगर मिल गया कि गुरु मिल गया? वह तो जादूगर है। आजकल जादूगरों के चेले बहुत हैं। आनंद आ जाए, प्रकाश हो जाए, आहा ! हा! उसके चेले हो गए। यह सब मुझे भी हुआ, मैं आनंद में रहा, पर शुरू से गुरुदेव ने वेदांत सुनाया था इसलिए प्रकाश गया, नाद गया, आनंद गया, क्रियाएं गई, कुंडलिनी गई, शरीर के चमत्कार गए, बहुत दुःख हुआ । फिर हम वहाँ पहुंचे जहाँ सुख -दुःख नहीं हैं। सुख- दुःख के पार गए। इसलिए कश्चित् धीरः, यदि धैर्यवान होगे तो ध्यान के सुख से भी ऊपर जाओगे नहीं तो वहीं फँसे रहोगे।

जो रोशनी देखी या दिखी, क्या वह तुम्हारा स्व है? (नहीं) । तो जो स्व नहीं है वह नश्वर है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नश्वर कीमती नहीं है। कीमती है पर तुम्हारा स्व नहीं है। यह व्यतिरेक है, यह न रहने वाला है। ये उजाला, प्रकाश, कुंडलिनी; सब बहुत अच्छे हैं, आगे ले जाने में मदद कर सकते हैं बशर्ते गुरू अच्छा हो। नहीं तो, यही तुम को बाँधकर, पकड़कर अटका देंगे इसलिए कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्। यदि ना मरने वाले को खोजने चले हो तो कहीं रुकना मत। खोजना है तो चल गहराई पर …….। देखो, यहाँ डूबना नहीं कहा। मैं जानकर बदल रहा हूँ
खोजना है तो चल गहराई पर,
साहिल (किनारे) के लिए बेताब ना हो।
नादाँ, ये दरिया- ए- मोहब्बत के कहीं किनारे होते हैं ?
तू कहाँ पकड़ रहा है किनारे ? कि अक्सर तुबियानी में डूब जाते हैं। निगाहें रख तू कश्ती पर ओ साहिल के तमन्नाई । निगाहें कश्ती पर रख, किनारे मत देख। किनारा देखेगा तो नाव चलाना भूल जाएगा। निगाहें रख तू कश्ती पर ओ साहिल की तमन्नाई कि अक्सर तुबियानी में डूब जाते हैं किनारा देखने वाले । और किसी को देखने वाले डूब जाते हैं । इसलिए जो भी और है, चाहे रोशनी हो या और कोई, बल्कि यह भी कहा है कि भगवान भी सामने आए तो तू कह सके कि जा तू दृश्य है, धोखा देने वाला है, ना रहने वाला भगवान है, चोखा नहीं है, धोखा है। चोखा भगवान तो तेरे साथ है, अंग- संग है। जो मिलता है वह बिछड़ जाता है। मिलकर बिछड़ जाने वाला भगवान भगवान नहीं है। इसलिए धैर्य रखो, जल्दी खुश मत होओ। जल्दी लक्ष्य को पा लें; ऐसा मत सोचना।धीरे-धीरे चलते जाओ। धीरे- धीरे, चलते -चलो, चलते-चलो।

धैर्य

धैर्य की, धर्म की, मित्र की और स्त्री की संकट में ही परीक्षा होती है। आप राष्ट्र भक्त हैं, यदि देश पर संकट आ जाए तो आपकी कसौटी हो जाएगी। यदि पार्टी में मान न मिले तो पार्टी से नाराज होगे कि देश से? ….. तो धैर्य क्या है? विपरीत परिस्थिति में भी डगमगाना नहीं, धैर्य है। दूसरा, सुख से बचना। जब सुख मिलता है तब आप भोगना चाहते हो या नहीं? भोगना चाहते हो! जब सुख भोग सकते हो तो दुःख क्यों नहीं भोगते? पर होता क्या है, आप सुख से बच नहीं पाते।
सुख में जो त्यागी बन सके और दुःख में होते न उदार।
….. सुख में सुखी, दुःख में दुखी होना सभी नर जानते हैं। यह मेरी एक कविता की लाइन है। रामायण में भी है- सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।। ‘धीर’ शब्द तो बहुत जगह है। जो सुख में सुखी, दुःख में दुःखी सभी नर हो जाते हैं, जानते हैं, सहज है । मान में फूलना, मान न मिलने पर बौखलाना किसे नहीं आता ? यह तो नेचुरल है लेकिन धैर्य नेचर के विपरीत है। धैर्य प्रकृति के विपरीत है, पर तुम्हारे हित में है।

इंजेक्शन का कष्ट मालूम पड़ना स्वाभाविक है, यह नेचर है। ऑपरेशन में तकलीफ होना नेचर है, परंतु धैर्य रखना आपके हित में है। धैर्य कभी हानि नहीं करता। घर में धैर्य रखो तो परिवार में नर्क नहीं आएगा। धैर्य छोड़ा तो गड़बड़ है। इसीलिए कहा है- धीरज धरहिं तो लागे पारा, नहीं तो डूबे माँझी धारा। ‘धीरज’ शब्द का प्रयोग बहुत जगह है,पर किस अर्थ में है? परिस्थितियों में डटे रहना, भागना नहीं, जागना। यदि आप अकर्ता और अभोक्ता होना चाहते हो तो धैर्य रखो। या यूँ समझो कि प्रतिक्रिया धैर्यहीन को होती है। तुरंत रियेक्ट (प्रतिक्रिया) करना जैसे, पानी में पत्थर फेंका तो लहर उठी वह रिएक्शन (प्रतिक्रिया) है। यह पानी का कर्म नहीं है, रिएक्शन है। आपको कुछ बुरा कह दिया तो आप में क्रोध पैदा हो गया; यह रिएक्शन है। आपकी प्रशंसा की, आपका चित्त खुश हो गया, चेहरे पर रौनक आ गई; यह रिएक्शन है, अधैर्य है, धैर्य नहीं है। आप सम्मान भी झेल नहीं पाए, आप अपमान भी झेल नहीं पाए । राम वनवास को भी झेल गए। इसलिए राम में धैर्य है, राम धर्मात्मा हैं, राम धर्म के साक्षात् विग्रह हैं। धर्म भी धैर्यवान के पास रहेगा। जिसमे धैर्य नहीं हैं उसमें शांति भी नहीं रहेगी। जिसमें धैर्य नहीं उसमें धर्म भी नहीं रहेगा। जिसमें धैर्य नहीं है उसमें ब्रह्मज्ञान भी नहीं रहेगा। धैर्यहीन व्यक्ति को ब्रह्म ज्ञान नहीं होगा। इसलिए धैर्य की बड़ी आवश्यकता है। छोटे स्तर का धैर्य नहीं, बड़े स्तर का। कोई विरला ही धैर्यवान होता है जैसे, भगवान राम वनवास में भी उनका मुख कुम्हलाया नहीं। यह श्लोक मैं पहले ही बोल चुका हूँ- –
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥

(अर्थ:-रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुई, वह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो॥)

इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें लोग लूटते रहें और तुम सहते रहो। तुरन्त प्रतिक्रिया न हो। फिर यदि कोई मारने लायक हो तो मार दो, लड़ने लायक हो तो लड़ो; पर उस सेकंड कुछ व्यक्त हुआ है तो वह सिर्फ प्रतिक्रिया है, क्रोध है।