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एक ही रास्ता

इस मैं-मैं के ख्याल को छोड़ना है। भले ही यह ख्याल रोज पैदा हो। तब भी यही समझो कि यह ख्याल है । यह ख्याल मैं नहीं। ‘यह मेरा’ भी ख्याल है। “मैं अरु मोर तोर तैं माया।” हर एक का मैं है और मेरा है। और जिसके पास मैं है, मेरा है उसकी समझ में कोई तू भी है और तेरा भी है। ये मेरा-तेरा, मैं और मेरा, तू और तेरा ये दोनों ही माया हैं। इतना है माया- “मैं अरु मोर तोर तैं।” इसके अलावा कोई तुम्हें मिले तो वह ब्रह्म है। इतना ख्याल छोड़ कर यदि कुछ बचता हो और वह तुम्हें मिल जाए तो उसी का नाम पर ब्रह्म है। और वह हर मैं और तू के बीच में छिपा है। मैं में, तू में वह छुपा है जैसे, लहर में पानी, गहनों में सोना, औजारों में लोहा। गहनों में सोना है नहीं कि छिपा है? गहना दिखने लगता है, औजार दिखने लगता है, मैं लगने लगता है, ब्रह्म छिप जाता है। इसलिए- गूढ़उ आत्मा न प्रकाशते

आत्मा छिपी हुई है, अहंकार स्पष्ट है। इसलिए कोई भी धैर्यवान व्यक्ति जल्दबाजी न करें। धैर्य चाहिए। समझ गए हो तो भी समझो। कहीं जल्दबाजी में न समझ लेना। हम जल्दी समझने को बुरा नहीं मानते पर जल्दी में ज्यादातर गलत ही समझा जाता है। सही भी समझोगे तो भी गलत ही समझोगे। तुम क्यों ब्रह्म हो? देह हो इसलिए ब्रह्म हो? तुम अपने को देह मानते हुए ब्रह्म कह रहे हो कि देह अभिमान छोड़ कर कह रहे हो? देहाभिमाने गलिते, देह गलिते नहीं कहा। यदि देह गल जाएगा, तो फिर सुनेगा कौन? यदि मैं ही नहीं होगा तो सुनेगा कौन? इसलिए-
देहाभिमाने गलते विज्ञाते परमात्मनि।यत्र यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधयाः।। (सरस्वती रहस्योपनिषद्) (देहाभिमान के नष्ट हो जाने और परमात्मा का ज्ञान होने पर जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम अमृत्व का अनुभव होता है।)
भिद्यतेह्रदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्तेचास्य कर्माणितस्मिन्दृष्टे परावरे।।(मुण्डकोपनिषद् 2.2.8)
( उस परब्रह्म को तत्वतः जान लेने पर मनुष्य की हृदयग्रन्थि खुल जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और उसके संपूर्ण कर्म क्षीण हो जाते हैं।)
उसके बिना देखे ग्रंथि नहीं कटती निर ग्रंथ ग्रंथ मुक्त नहीं होता इसलिए- तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3.8)। (उसे जानकर ही साधक मृत्यु के चक्र को पार कर सकता है अमरत्व प्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है।)

यदि अन्य रास्ते तुम्हें लगते हैं तो यह नहीं है कि वहाँ नहीं हैं। जहाँ तुम हो वहाँ से बहुत रास्ते हैं पर जब पहुँच जाओगे तो पता चलेगा कि सब रास्ते आगे चलकर किसी एक में ही मिल जाते हैं। जैसे, वर्षा का पानी पहले इकट्ठा होकर नालियों में जाता है, फिर नालियों का पानी नदी में जाता है। नदी का पानी महानदी में और महानदी का पानी सागर में जाता है। सागर को कौन मिलता है, क्या सीधा नाली मिलती है? नहीं। तो फिर नाली को क्या जिद्द करनी चाहिए कि हम तो डायरेक्ट सागर से ही मिलेंगे? यहाँ हम यह नहीं कहते कि और कोई रास्ता नहीं है लेकिन और सब रास्ते ज्ञान में ले जाएंगे। इसलिए ज्ञान ही एक साक्षात् रास्ता है ब्रह्म होने का। तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। लेकिन यह भी है कि और रास्ते मानोगे तो वेद का विरोध होगा और अन्य रास्ते नहीं मानोगे तो पहुँचोगे ही नहीं ।

मांडुक्योपनिषद

वेद में तीन कांड है, एक का नाम है कर्मकांड, दूसरा है उपासना कांड, तीसरा है ज्ञान कांड। कर्मकांड में यदि हम विधि से ना करें तो पुण्य की जगह पाप भी हो जाता है। इसलिए कर्मकांड में बहुत ध्यान रखना चाहिए। विधि का पालन करना चाहिए। उदाहरण में एक यह भी कर्मकांड ही है, जब आप पैर छूते हैं तो चलते में, लेटे में, पूजा पाठ करते में, भोजन करते में, छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए, दूर से हाथ जोड़ लेना चाहिए। यदि आप चलते में करते हैं तो पुण्य नहीं है,पाप है। ऐसा ही दान करने में यदि पात्र को दान नहीं देते तो भी पाप लगेगा। नशेड़ी को आप दान दे रहे हैं इसका मतलब नशा पीने के लिए आप सहयोग दे रहे हैं तो यह पाप है। दान देने में भी पाप लग जाता है। यती को स्वर्ण दान देना पाप है। सन्यासी को स्वर्ण दान नहीं करना चाहिए। यतय: कांचनं दत्वा तंबुलं ब्रह्मचारिणो। ब्रह्मचारी को पान देना पाप है और चोर बदमाश को अभय दान देना कि तुम चिंता मत करो हम संभाल लेंगे। अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है ।

अभय दान किसको देना? अर्थ दान किसको देना और…. नमस्कार भी किसको करना? यदि आप दुष्ट को नमस्कार करते हैं, सम्मान देते हैं, इसका मतलब गलत आदमी को बढ़ावा देते हैं। सम्मान भी संभल कर देना चाहिए। तो दान के लिए भी नियम है। नमस्कार के लिए भी नियम है। हमको खुद भी नहीं पता था पर बहुत माताएं पुरुषों से ज्यादा जानती है। अभी भी कई माताएं है, यदि हम लेटे हैं तो कहती है स्वामीजी बैठ जाओ! तो पहले मैं नहीं समझा कि क्यों कहती है। हमने कहा क्यों? तो कहती है हमें प्रणाम करना है क्योंकि लेटे में प्रणाम नहीं करना चाहिए। ऐसे ही हम चलते हो तो या तो कहो कि स्वामी जी जरा रुक जाओ, हम रुक जाए तो प्रणाम करो! चलते में नहीं करना चाहिए। तो अभिप्राय है कर्मकांड में विधि का महत्व है। और यह प्रयागराज है, इसमें भी……  विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्म कथा रविनंदिनी बरनी।। 
कर्म की कथा में विधि और निषेध है। यह करना है कि नहीं करना! अर्जुन को लगा ‘मैं लड़ूंगा तो पाप लगेगा’। अब भगवान ने कहा ‘नहीं तुम्हें पाप नहीं लगेगा!’ इसके लिए गीता सुनानी पड़ी अर्थात क्षत्रिय का कर्तव्य है कि ऐसी परिस्थिति हो तो युद्ध करना। सेना में लोग भर्ती है, यदि युद्ध के समय कहने लगे कि हिंसा हो जाएगी तो…..! वे युद्ध करेंगे तो वह युद्ध करना पाप नहीं है। और कोई रोज गीता पढ़ के घर में ही लड़ने लग जाए तो? इसलिए युद्ध करना भी कब, किसे पाप है, किसे पाप नहीं है (यह समझें)। गृहस्थ धर्म है परिवार का पालन करना,नहीं करता तो पाप लगता है। आप बच्चों को पैदा कर दिया और कर्तव्य का पालन नहीं करते हो तो ठीक नहीं। अर्थात् गृहस्थ का एक धर्म है, सन्यासी का एक धर्म है। अब यहां सब का एक ही धर्म नहीं है, सन्यासी का दूसरा धर्म है, गृहस्थ का अलग धर्म है, ब्रह्मचारी का अलग है। इसलिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास यह आश्रम है। किस आश्रम वाले को क्या करना चाहिए, ब्रह्मचारी को क्या करना है क्या नहीं करना है, गृहस्थ को क्या करना है क्या नहीं करना है, इसी तरह से सन्यास में भी। इसलिये कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए । जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए।

कोई भी  आश्रम सोच समझकर ग्रहण करना चाहिए। सबको सन्यास नहीं लेना चाहिए। जिस धर्म के लिए हम ईमानदार ना हो उस धर्म का ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां तक दीक्षा में भी यही है। मुझे स्मरण हैं मेरे बड़े भाई को किसी ने कहा ‘दीक्षा ले लो मेरे गुरुदेव से, तो उन्होंने कहा’ अभी हम नहीं लेंगे अभी हमसे नियम का पालन नहीं होगा, इसलिए अभी हम नहीं लेंगे’। तो आप मंत्र को नहीं समझते। तो यह  सन्यास के ही लिए नहीं है मंत्र लेने के लिए भी है। जो गुरु की आज्ञा नहीं मान सकता, उनके बताए नियम का पालन नहीं करता उसे दीक्षा नहीं लेना चाहिए। तो उद्देश्य है…..विधिनिषेधमय कलीमलहरणी कर्मकथा रविनंदिनी बरनी।। तो एक तो जमुना नदी है और दूसरी यहां गंगा है भक्ति की तरह। भगवान की कथा, उपासना, भक्ति यह गंगा है, कर्म जमुना है, और ब्रह्मज्ञान सरस्वती है ब्रह्म की चर्चा। तो…. अभी यहां पर इकट्ठे हुए हो तो वैसे भी यहां गंगा, जमुना, सरस्वती का संगम है और सत्संग में भी है। क्या करना ,क्या नहीं करना, यह सीख के पालन करो तो जमुना हो गई, भगवान की चर्चा भगवान का ध्यान-भजन ,जाप करते हो तो यह गंगा हो गई और ब्रह्म की कथा जब सुनोगे तो सरस्वती हो गई । तो दोनों तरह का इस समय यहां संगम है। कथा में भी प्रयागराज होता है और इस समय  दो प्रयागराज चल रहे हैं। वैसे भी प्रयागराज में हो और सत्संग का भी प्रयागराज है। यहां जिन्हें ब्रह्मज्ञान चाहिए वह भी मिलेगा, कर्मकांड आदि चाहिए तो वह भी मिलेगा और भगवान की उपासना भी।

उपासना के लिए भी एक सूत्र है ध्यान का। हम ध्यान कई तरह से कर सकते हैं, पिता का ध्यान, गुरु का ध्यान, प्रकाश का ध्यान, आकाश का ध्यान, भगवान राम का ध्यान, कृष्ण का ध्यान, यह साकार ध्यान है, यह हम सब कर सकते हैं। और…. सुषुप्ति का ध्यान, स्वप्न का ध्यान ‘स्वप्ननिद्रालंबनं वा’ स्वप्न और निद्रा का आलंबन करके ध्यान कर सकते हो। सहारा लेकर, आलंबन माने सहारा लेकर। तो नींद का सहारा ध्यान में लो। तो…. गहरी नींद का क्या सहारा है? नींद में आपको कौन सा दुख था? नींद में आपको कौन सी चिंता थी? नींद में गहरे में कौन सी कामना थी? अर्थात् गहरी नींद आपका अनुभव है और जिसका अनुभव है उसका ध्यान आसान है। ऐसा एक भी नहीं आया होगा शरीरधारी जिसको नींद का पता ना हो। ऐसा अनुभव तुम्हें जीवन में हुआ है जब तुम्हें दुख ना था, चिंता न थी, कामना न थी? और वह कब अनुभव हुआ? बोलो! गहरी नींद में यह अनुभव सबको प्राप्त हो गया है जहां तुम्हें कोई कामना नहीं है, जहां कोई भय नहीं था, जहां कोई चिंता नहीं थी, कुछ नहीं चाहते थे, यहां तक गलती का भय भी नहीं था। कोई गलती हो जाए तो डर लगता है पर गहरी नींद में डर नहीं था। (गहरी नींद) अनुभूत सत्य है जहां तुम्हें कोई भय नहीं था ।आप नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं है। वहां कोई कामना नहीं थी । भगवान बड़ा कृपालु है, तुमको भेंट में गहरी नींद दे दी है। चाहो तो आप उसका सहारा ध्यान में ले सकते हो अर्थात् नींद के लक्षण ध्यान में ले आओ, पूरा स्मरण नींद का करो। आप क्या चाहते थे? क्या कमी थी ? क्या भय था ? तो……. ध्यान में बैठकर गहरी नींद की याद करो जहां तुम्हारे पास कोई दुख चिंता भय नहीं  । और इसको ( बुद्धि की अवस्थाएं) समझना हो तो मांडुक्योपनिषद जरूर पढ़ो। मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है।

मांडुक्योपनिषद मनुष्य जीवन का चित्रण है और मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है चाहे कोई मुस्लिम है ,चाहे कोई इसाई है, चाहे कोई हिंदू है ,चाहे किसी वर्ण और आश्रम का है। मांडुक्योपनिषद मनुष्य मात्र के लिए है और मनुष्य मात्र की तीन अवस्थाएं होती है- जाग्रत, स्वप्न ,सुषुप्ति। तो एक तो गहरी नींद का स्मरण करना ध्यान है। स्मरण करो गहरी नींद में क्या था! धीरे-धीरे होश पूर्वक नींद में प्रवेश करो। बहुत पहले जब मैं ध्यान कराता था तो यह लाइन जरूर बोलता था –  ‘सब प्रपंच निज उदर मेलि  सोवे निद्रा तजि योगी।।’ 
इस लाइन को याद रखो, सब प्रपंच जैसे नींद में कोई प्रपंच नहीं था, सब प्रपंच निज उदर मेलि सोवे निद्रा तजी…. निद्रा तज कर सो गए, बिना नींद के सोए जैसा हो जाए, नींद के बिना सोवे, होश में सोए जैसा हो जाए और धीरे-धीरे चलते फिरते भी अंतः चेतना में सोए जैसा हो जाए। ना कोई कामना है ना कोई भय है! इसलिए भगवान ने गीता में कहा-  विहाय कामान् य: सर्वान् पूमान्श्चरति निस्पृह:।।
सभी कामनाएं छोड़कर विचरण करें । नींद में कोई कामना थी क्या? नहीं! तो जागृत में भी कामना रहित …..कुछ नहीं पाना !स्वर्ग नहीं पाना !थोड़ा समझ लिया हो तो अमर नहीं होना क्योंकि (अमर) हो ! सुख नहीं ढूंढना क्योंकि सुख स्वरूप हो ! सुख स्वरूप होकर सुख को भूल गए और भटक रहे हो सुख के लिए? रोटी के लिए भटकने वाला भिखारी नहीं है, वह आवश्यकता है ,पर जो सुख के लिए भटकते हैं वह सब भिखारी है। और कौन है ऐसा इस धरती पर जो सुख के लिए भागा नहीं फिरता! कम से कम सुख तो हमारा हो “निज का”!

गुरु, शास्त्र क्यों?


गुरु तुमने किस लिए बनाया था? शास्त्र किसलिए सुने/पढ़े थे? सत्संग किस लिए करते हो? पूजा आदि किस लिए शुरू की थी? ध्यान का प्रारंभ क्यों किया था – क्या बात थी – क्या मजबूरी थी? कोई न कोई तो गड़बड़ी होगी ही, जिसके दूर करने के लिए किया होगा। गड़बड़ी दूर हो गई कि नहीं? यदि दूर हो गई हो, तो उसे भी छोड़ दो। कांटे से कांटा निकाल कर कांटा फेंक दिया जाता है। यह मैं अपनी तरफ से नहीं कहता हूं; ऐसा ही किया जाता है। यह तथ्य है।
शायद किसी को काट प्रतीत होता हो। कांटे से कांटा निकालकर कांटा फेंक दिया जाता है। लेकिन, निकालने के पहले ही फेंक दें तो? जब फेंकना ही है, तो पहले ही फेंक दें। आगे या पीछे में क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क पड़ता है कि नहीं? यदि कांटे में पड़ता है, तो ध्यान और समाधि छोड़ने में भी पहले और पीछे में फर्क पड़ता है। पहले फेंक देने से परेशानी नहीं जाएगी और परेशानी जाने के बाद फेंक देने से कोई परेशानी नहीं आएगी। इसीलिए, काम करने का जो प्रयोजन है, वह पूरा हो जाना चाहिए।
शास्त्र का भी अपना कोई प्रयोजन है कि बुद्धि को सूक्ष्म कर दे। जो बुद्धि बहिर्मुख है, उसे अंतर्मुख होने को तैयार कर दे। जो भगवान् हमने बाहर समझा है शास्त्र उन्हें तुम्हारे अंदर ही बता दे। शास्त्र तुम्हें भगवान् को पकड़कर नहीं देगा? उसका एक ही प्रयोजन है। जब उसने बता दिया कि भगवान तुम्हार अन्दर है, तो अपने अंदर शांत होकर ध्यान शुरू करो। सुनने के बाद ध्यान और समाधि शुरू करो। सुनने के पहले नहीं। पहले शास्त्र द्वारा परमात्मा को समझो, पढ़ो और विचारों की क्या चीज है, कहां है, कैसा है? जब पढ़ लोगे, तब पता चलेगा कि परमात्मा सर्वत्र है। हममें भी परमात्मा है, यह भी नहीं; बल्कि हम परमात्मा हैं। जब यह जान लिया, तो फिर बाहर की तलाश बंद। जब आप ध्यान के योग्य हो गए, अब आप समाधि के योग्य हो गए। जब परमात्मा हममें ही है, तो क्यों भटके? क्यों कहीं जाएं? केवल शांत होकर बैठ जाएं।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

अजन्य को जानो

साधनाजन्य अवस्था के कारण तुम्हारा रोना नहीं मिटेगा। चलो, तुम्हें बहुत अच्छा शरीर मिल गया, गदहे का नहीं मिला, कुत्ते का नहीं मिला पर क्या तुम्हारा रोना मिटा?  अवस्था मिल भी जाएगी तो क्या उसके जाने का रोना मिटेगा?  मैं कहा करता हूँ कि भोगी जवानी के खोने से रोता है और योगी समाधि के खोने रोता है। रोना तो दोनों का ही नहीं मिटा। रोना तो सिर्फ आत्म ज्ञानी का ही मिटता है। इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए चित्त में योग्यता चाहिए और योग्यता साधना से आती है पर समझ  तो गुरु वाक्यों से, महावाक्यों से, ग्रंथों से आती है।

     इसलिए साधना को नकारना नहीं, साधना आवश्यक है। यदि साधना नहीं करोगे तो इतनी गहरी समझ नहीं आ सकती और यदि साधना से सुख लेने लगे, समाधि का आनंद लेते रहे तो फिर विलगाव का दुःख भोगोगे । प्रधानमंत्री तो कोई न कोई बनेगा ही, बनाना पड़ेगा क्योंकि काम करना है। अब सदा के लिए वही बना रहे तो रोएगा।  ऐसे ही जवानी तो होगी। साधु का भी शरीर होगा पर उसको यदि रखना चाहेगा तो रोएगा। ऐसे ही समाधि  बहुत अच्छी अवस्था है पर जाएगी तो रोना होगा। तो फिर कौन है जो नहीं जाएगा, समाधि कि सत्य ? जो नहीं जाएगा वह सत्य है और जो जाएगा वह प्रकृतिजन्य है, साधनाजन्य है। समाधि साधनाजन्य है, आत्मा अजन्य है अविनाशी है। जब तक अविनाशी, अजन्य को नहीं जानोगे तब तक सूक्ष्म के प्रवाह में फँसे रहोगे। एक स्थूल में फँसा है, एक सूक्ष्म में फँसा है। ज्ञानी सबसे मुक्त है, गुणातीत है।
इस सत्य को सुनो और समझो।

सबसे बड़ा पाप


माताएं जब बच्चों को चलना सिखाती हैं, तो जैसे ही वह पास आएगा, मां थोड़ा पीछे हटेगी, फिर थोड़ा और पीछे हटेगी। महात्माओं को भी तुम्हारी प्रवृत्ति को धीरे – धीरे जगाना पड़ता है। यह न समझना कि हम तुम्हें धोखा देने के लिए कह रहे हैं; बल्कि, हम तुम्हारे हित के लिए कह रहे हैं। इसीलिए, अपने प्रमत्त मन से कह देना कि पन्द्रह दिन के लिए प्रमाद न करे। हजार काम छोड़ो; लेकिन, सत्संग मत छोड़ो; क्योंकि, यही अपना काम है।
कई लोगों की इतनी जटिल परिस्थितियां हैं, जिनके कारण वे विवश होकर नहीं आ पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुझे भी दुख होता है। उनके लिए मैं यही कहूंगा कि न आ सकें, तो कोई बात नहीं; लेकिन यह देखना कि मन प्रमाद से और चालाकी से कहीं ऐसा न कर रहा हो कि अब क्या करेंगे, दूर पड़ता है, तांगे में पैसे लगते हैं। इस प्रमाद से घूमाव- फिराव न करे, बाकी किसी कारण से न आ सको, तो कोई बात नहीं।
देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित नहीं
संसार के सब नुकसान सहे जा सकते हैं; लेकिन, आत्मा का अकल्याण नहीं सहा जा सकता। मकान के गिरने से शरीर का गिरना ज्यादा बुरा है। जो आदमी अपने अकल्याण को सह रहा है; वह आत्म -हत्यारा है। दुनियां में सब की हत्या कर लेना बुरा नहीं है; परंतु अपनी हत्या सबसे बड़ी हत्या है। इसीलिए, आत्महत्या करने वाले का उद्धार हमारे ऋषियों ने भी नहीं बताया। सब पापों का मोक्ष है; लेकिन, आत्महत्या का प्रायश्चित नहीं। आत्महत्या से मेरा मतलब है, जो अपने आप को अभिमानी समझे। जो देहाभिमान में जकड़कर अपने आप को मरने वाला मानता है, वह तो मुक्त हो ही नहीं सकता। अतः, शरीर का अभिमान ही छोड़ो और कोई रास्ता नहीं है।
कुपथ्य कर- कर दवा खाना वैसा ही है, जैसे चोरी करके पुलिस को ₹10 चढ़ा देना। मधुमेह में शक्कर भी खा लो और गोली भी। यह तो हो गया बराबर; लेकिन, देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित्त नहीं। इसका एक ही तरीका है कि देहाभिमान को छोड़कर आत्मा को देखो–

“देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ,
यत्र-यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधया:।”


देहाभिमान गल जाता है, तब परमात्मा का बोध होता है। जिस आदमी की चेतना परम ब्रह्म परमात्मा में लीन होती है; परमात्मा भाव को प्राप्त होती है; वही आदमी अजर, अमर और परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है। चाहे कोई भी हो, सबको सत्संग की जरूरत पड़ेगी; आज नहीं तो कल पड़ेगी। इसलिए, सबको सत्संग करना चाहिए।

इस विषय पर विस्तार करते हुए गुरुदेव हरदम ये लाइन दोहराते है …

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्र का ये बाप है

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

तुम भी अवतार हो सकते हो

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक तरह के विषय आते हैं जिससे हमें सीखने को मिलता है। आज एक यह सीखने को मिलेगा की जैसी हो भवितव्यता तैसी मिले सहाय जैसा होना होता है वैसे सहयोग करने वाले मिलते हैं। आपने जावे कहां पर ताहि तहां ले जाए।। चूंकि कंस की मृत्यु के लिए भगवान का जन्म होना है तो आपने सुना ही है कि पहले वह बहन को ही मार देना चाहता था। पर सलाह देने वालों ने कहा कि बच्चे को मार देना। बहन को क्यों मार रहे हो? तो सोचा कि चलो आठवें बच्चे के लिए कहा है तो आठवें को मार देंगे। तो किसी ने कह दिया कि बीच में भी आठवां हो सकता है। तो वह तो  एक एक करके सभी बच्चे मारने लगा। यह सब होते हुए भी हुआ वही जो  होना था। तो जो होना है वह होता ही है। दूसरा है भगवान के जन्म का विषय भारत यद्यपि वेदांत और अध्यात्मिक ज्ञानी गुरुओं का देश है, बहुत लोग अवतार भी मानते हैं पर  हमारी दृष्टि से अवतार नहीं माने तो हम बहुत कुछ खो देंगे। हमारा सब का जन्म  वासनाओं से होता है। कोई ना कोई पहले वासना थी जो यहां आए इस जन्म में कोई वासना होगी तो अगला जन्म लेंगे। यदि कल्याण की अधिक वासना होगी, मोक्ष की वासना होगी तो ज्ञान हो जाएगा और मुक्ति प्राप्त करेंगे।

पर भगवान कोई अपनी वासना से नहीं आते। उनको जब अपने भक्तों का उद्धार करना होता है तब वह अवतार लेते हैं। कहते हैं ना निज इच्छा निर्मित तनु अपनी इच्छा से शरीर बना लेना। हमारा शरीर हमारी इच्छा से नहीं वासना से बना। परंतु भगवान को जो जो करना है वैसी ही सामर्थ्य लेकर के आए। हम लोग चाहे भी तो नहीं कर सकते। इसलिए भगवान का, अवतारों का जो शरीर है वह आग में नहीं जलता, गड्ढे में फेंकने पर भी नहीं मरता, तो ऐसा शरीर हमारा तो नहीं है, हम आग से जल जाएंगे। हमारा शरीर यदि पहाड़ी से फेंक दिया जाए तो बिगड़ जाएगा। तो जो भगवान हैं वह जैसी जरूरत वैसा शरीर लेकर अपनी इच्छा से आते हैं। हमारा शरीर सब तरह की क्षमता लेकर नहीं आया इसलिए भगवान के स्मरण का, उनके दर्शन का, उनके सुमिरन का, उनके ध्यान का बड़ा लाभ होता है। यही लाभ उठाते उठाते आप जिस दिन परमात्मा को समझ गए और अपनी आत्मा में उसको एकीकार मान लिया जान लिया उस दिन तुम भी परमात्मा हो जाओगे। तुम भी अवतार लोगे लोगों का कल्याण करने न कि पुरानी चाहों को इस जन्म में पूरा करने आओगे और नई चाहें बना के फिर नया देह पाओगे।

सोचो!

“एक अभ्यास को काटने के लिए दूसरा अभ्यास  चाहिए विरोधी। तो सोते समय, सोने के पहले ‘लेटा हूं’ मान कर मत सो, ‘दृष्टा हूं’ सचमुच यह स्मरण करने के बाद सो जाओ।” कुछ देर दृष्टा  और लेटे समय दृष्टा तो चलते समय भी दृष्टा, बैठे समय भी दृष्टा! देह चलता हो बैठा हो लेटा हो, देह की स्थिति  बदलेगी। पर “बैठे में भी दृष्टा, लेटे में भी दृष्टा, चलते में भी दृष्टा! इसको मंत्र(समझो)! जो मंत्र दिया जाता है वह मंत्र नहीं, यह मंत्र है। और दृष्टा ही …...”एको देवा सर्वभूतेषुगूढ़ा सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा कर्माध्यक्ष सर्वभूतादिवासा साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।” मैं ब्रह्म हूं इसका शायद विश्वास करना पड़ेगा, ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रमाण चाहिए, अनुभव चाहिए। पर द्रष्टा होने के लिए आपको कहीं से उधार अनुभव नहीं लाना। सिर्फ एक बता दिया, “आप हो द्रष्टा, सचमुच दृष्टा हो! यदि देह के दृष्टा ना होते तो ‘मैं देह हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता, ‘बैठा हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता। बैठा हूं यह ख्याल बाद में आया, किसको? दृष्टा को! इससे सरल कोई चीज नहीं हो सकती।” मुझे बहुत याद नहीं है पर फिर भी शायद ऐसा ही है, महर्षि रमण ने  सोहम् कहने को मना किया है, शिवोsहम् कहने को भी मना किया है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ भी शायद नहीं कहा। क्याेंकि उसमें शायद कुछ लाना पड़ता है। पर “दृष्टा होने में कुछ लाना नहीं पड़ता, कोई शास्त्र नहीं, कोई और चीज लानी नहीं” तुम देह को जानते हो इसलिए इस अभ्यास में कोई कठिनाई नहीं है। हां, प्रमाद है, आलस्य है, लापरवाही हो सकती है गर ध्यान ना दो। पर दृष्टा तो हो! और “दृश्य से दृष्टा भिन्न होता है। दृश्य और दृष्टा एक हो नहीं सकते।” हमको जब पढ़ाया जाता था तो यह बताते थे – घटदृष्टा घटाद्भिन्ना।। घड़ा का देखने वाला घड़े से अलग होता है। इसी तरह देह का दृष्टा भी देह से भिन्न होता है। दूर नहीं कहते, भिन्न! जैसे यह उंगली दूसरी उंगली से भिन्न है। भिन्न  माने कितनी दूर? जैसे एक हाथ दूसरे हाथ से भिन्न है। देखो यह दो हाथ है, दायां और बायां, दोनों भिन्न है। ठीक है?  जुड़े हो तब भी भिन्न है। तो तुम पास हो या दूर हो? तुम दो चार मिल देह से दूर चले जाओगे, चले जाओ तब द्रष्टा हो गए या देह से अलग हो गए? ऐसा भ्रम मत पालो! “देह दृश्य है, तुम दृष्टा हो! कितने नजदीक हो, तो भी द्रष्टा हो, देह दृश्य है! देह द्रष्टा नहीं है और दृष्टा देह नहीं है! यह अभ्यास आज से शुरू करो।”

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।