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इतनी सी बात समझ गए, मानो सब समझ गए


हमनेे देखा कि बहुत लहरें हैं, पूछा कि कहीं पानी भी है? तो लहरों ने साफ इंकार कर दिया कि पानी है ही नहीं। जब हमने बहुत कहा कि जरा तुम देखो तो की लहरें कब से बनी हो? उन्होंने कहा इतने दिन से। हमने कहा इससे पहले क्या था? उन्हें कुछ सोचना पड़ा । हमने पूछा कि तुम कितने दिन रहोगी? तो उन्होंने कहा इतने दिन तो लगभग रहेंगी ही। हमने कहा इसके बाद क्या होगा ? उन्होंने कहा कि कुछ पता नहीं। हमने कहा उस पता नहीं की ओर भी जरा जाओ तो? लहर तो यहां से यहां तक है। इस के अगल-बगल क्या है? तब उनको मानना पड़ा कि कुछ है जरूर। इसके बाद उन्होंने स्वीकार किया कि पानी भी है। फिर हमने पूछा कि लहर है और पानी है, तो इन दोनों में से तुम क्या हो? उसने कहा लहर का तो मुझे अनुभव हो रहा है; परंतु, मुझे लगता है कि मैं कुछ और हूं। तब उसने कहा कि पानी हूं और पानी ही लहर है। फिर हमने कहा कि जरा देखो लहर कितनी है और पानी कितना है? तो उसने ढूंढना शुरू कर दिया। इसके बाद उसने स्वयं कह दिया कि लहर है ही नहीं, सिर्फ पानी है । हमने कहा कि और क्या बचता है? तो उसने कह दिया कि और कुछ नहीं बचता है, रह जाता है केवल पानी।
इसी प्रकार से अगर हम अपने अन्दर जागें, तृप्त होने लग जाएं, तो फिर जिसको हम कहते हैं ‘नहीं है’, वही रह जाएगा और जिसको हम कहते हैं ‘यह है’, वह सब खो जाएगा। आज जो कुछ है, वह नहीं है और आज जो कुछ तुम्हारे लिए नहीं है ,वह है। इसीलिए, हम जिस परमात्मा को इन्कार करते हैं, वह है और जिसको हम स्वीकार किए बैठे हैं कि ‘यह है ‘, वह नहीं है। पहले यह खोएगा और वही होगा। उसके बाद वही रह जाएगा और जो भी कुछ होगा, वह वही रह जाएगा। फिर सब कुछ वही है। इस प्रकार से हमको अपने अंदर प्रवेश पाना है। इसके भी द्वार खोलने हैं, जिसके दरवाजे आज तक बंद हैं।

गुणों के पार – मुक्त

पुज्य गुरूदेव बताते हैं, मुक्त कौन होगा ? जो गुणों से पार हो जाएगा।

गुण तीन प्रकार के हैं:

तमोगुण; मतलब आलस्य निद्रा। इस गुण में रहेंगे तो मरने के बाद अन्य योनियों में जाओगे। जैसे पक्षी, जानवर आदि।

रजोगुण; इस गुण में रहोगे तो मृत्यु के बाद भी मनुष्य योनी में ही आओगे।

सत्वगुण:बअगर इस दुनिया में सत्वगुणी रहोगे तो देवता बन जाओगे।

पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि तुम इन्हीं तीन गुणों में रहते हो। कभी जागृत कभी स्वप्न और कभी सुषुप्ति। इसको चक्र कहते हैं। उदाहरण से समझाते हैं, आपकी नाव पानी में चलती है। नाव में ही इस किनारे, फिर बीच में और आखिर में उस किनारे। नाव से तुम उतरे ही नही।
अपने को कैसे पहचाने कि हम तीन गुणों से बाहर गये।यह बहुत बडा रहस्य है। पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—


जो जान जाएगा यह सब गुणों का काम है।मैं तो साक्षी हूँ। मेरा कोई आग्रह नही है।


जब सचमुच गहराई से दुख,चिन्ता, भय नही है। ऐसे ज्ञानी चुनाव रहित होते हैं। जो होता है,होने देते हैं।


जब अमर हैं तो धीर्घ आयु की जरूरत ही क्या है या मृत्यु का विरोध करोगे?


अगर खुद सुखस्वरूप हो तो सुख पाने की इच्छा करोगे। जब कमी ही नही है तो पूर्ति किसकी करोगे।


पुज्य गुरूदेव बताते हैं मुक्त वही है जो इन गुणों से पार हो जाएगा।ज्ञानी चुनाव छोड के गुणातीत होता है। जैसे सागर नदियों को बुलाता नहीं हैं अपने आप आ जाती हैं और मना भी नहीं करता है क्यों आ गये।सागर शान्त रहता है।उदाहरण से समझो—


जैसे नारियल में पहले सिर्फ पानी होता; फिर पानी और गिरी भी; और अन्त में खाली गिरी।कोश से चिपका नही।अलख होता है, बाहर नही।


जैसे ज्योति जल रही हैं। डक दी गई। बाहर वालों के लिए वह बुझी सी है, पर ज्योति से पूछो कि तुम जगी हो या सोई हो।

सर्वोच्च ज्ञान

‘यह सब (जगत) प्रतीतियां मुझ में है’ जब तक यह नहीं समझते इसी का नाम अज्ञान है। अज्ञान कुछ नहीं यह सब है तुमही में। पर मुझमें है ऐसा नहीं जानते। हम स्वयं उत्पन हुए जानते हैं पर हमसे सब उत्पन्न होता है ऐसा नहीं जानते। सब नहीं रहते यह जानते हैं पर हम नहीं रहते यह भी समझते है। यह जो अपने न रहने का और अपने पैदा होने का भ्रम है यह चला जाए बाकी आत्मा ज्ञानस्वरूप सदा थी और है। यदि वह ज्ञानस्वरुप न हो तो अज्ञान ही सिद्ध नहीं होता ।अज्ञान कौन सिद्ध करता? इसलिए अज्ञान का भी अधिष्ठान मैं हीं हूं। पर यह शुरू में नहीं ख्याल में आता ।बस यह ख्याल में आ जाए कि मैं सर्वाधिष्ठान हूं। गुरुदेव का मंत्र यही है – ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रै नम:
ये जगत का आधार, आश्रय जो है वह मैं हूं। और गुरुदेव का मंत्र ‘जिस करके यह सब है ,जिसमें यह सब है ,जो सब में होकर सब को देखता है, जानता है सोsहम्। सोsहम् का उनका मंत्र का अर्थ। एक तो मंत्र और एक अर्थ। तो मंत्र तो सब जगह दिया ही जाता है सोsहम् शिवोsहम् लेकिन क्या मतलब है? तो कहे जिसमें यह सब है। यह ख्याल में आ जाए ‘जिसमें यह सब है’ जिस करके जिसके कारण सब है। “जो सब में होकर” यह जानबूझकर बोलते थे। केवल एक जगह हो कर सबको नहीं जानते, सब में होकर सब को जानते। सर्व का अधिष्ठान! यहां रहकर सर्वाधिष्ठान नहीं, सर्वाधिष्ठान तो सर्व में होता है। जैसे इस घड़े का आश्रय मिट्टी है , दूसरे घड़े का आश्रय भी मिट्टी है। कहां रह कर है? केवल इस घड़े में रहकर? या उस घड़े में भी रहकर? उस घड़े में रहकर मिट्टी उसका आश्रय है या यहां से उसका आश्रय है? हां! सब जगह रहके सर्वाश्रय है। इसलिए जब मैं अहंकार को लेकर सोचता हूं तो लगता है मैं सर्वाश्रय नहीं हो सकता। असल में चेतन ही सर्वाश्रय है सर्वाधिष्ठान है। यही भक्त का भगवान है । योगियों का आत्मा है। और ज्ञानियों का ज्ञानस्वरूप है। तो आप सब लोग……… देखो! कोई और उपाय कितना कर लो, अब दिल करे भी कि शरीर रहे पर नहीं रहेगा। दिल करें कि जागृत अवस्था बनी रहे पर नहीं रहेगी। शरीर बना रहे ये सबकी सोच है, ठीक है? और जागृत अवस्था बनी रहे यह सब साधकों की सोच है। हमें कहेंगे हम हमेशा सजग नहीं रहते , हम हमेशा सचेतन नहीं रहते। इसका मतलब तुम क्या हो? वृत्तिरुप हो? सदा नहीं रह पाते का मतलब वृत्ति के अभिमानी हो। असल में तो वृत्ति का जो साक्षी है वह कब नहीं रहता? पर अभी भी साधक वृत्ति को मुख्य “में” मानता है। इसलिए वाच्य अर्थ को त्याग जरा विज्ञान लक्ष्य में चित् जोड़ो वाच्य को छोड़ो। उस शब्द का वाच्य अंतःकरण वृत्ति अहंकार है या चेतन? यदि उसको तुम मैं मान लोगे तो एक समान नहीं ना रह पाओगे। यदि वृत्ती की प्रधानता से मैं सोचते हो तो एकरस कोई रह पाया नहीं चाहे कितना बड़ा कोई हो। तो साधना से क्या होगा? यह गुण साधन ते नहीं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोई कोई।। इस सत्य को कोई कोई गुरुओं की कृपा हो तो क्लियर होता है। नहीं तो लगे रहे कि एक समान नहीं रहता, हमेशा जागे नहीं रह पाते, हमेशा चेतन नहीं रहते ऐसी शिकायतें लिए आदमी बैठा रहता है। इसलिए गुरु कृपा हो तो गुरु कृपा से बात स्पष्ट हो जाए तो कुछ करना बाकी नहीं रहता।

सबसे बड़ी खोज

संसार में एक वस्तु जिससे पैदा होती है उसी से सारी वस्तुएं पैदा होती है । और चूंकि एक से ही सब वस्तुएं पैदा होती है इसलिए यदि हम  इसी एक वस्तु को  ठीक से जान ले तो  सब कुछ जान लिया जाता है। संसार में एक ही वस्तु है जो देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं है, सीमित नहीं है। जैसे लाउडस्पीकर  लोहे में बना हुआ है, उसका अपना आकार है , पर लोहे का अपना कोई आकार नहीं। लोहे के बेगैर लाउडस्पीकर का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। इसलिये लोहा यह लाउडस्पीकर का परमात्मा है। तो जब हम अमेरिका गए तो अमेरिका के लोग तुरंत बोल देते हैं कि स्टील को भारत के लोग परमात्मा कह देते हैं। हमने परमात्मा नाम रखा है। तुम उसका और कोई नाम रख दो। पर उसको ही ढूंढना है, उसका अनुभव करना है जो सब जगह रहता है। वैज्ञानिक भी कुछ ना कुछ खोजते रहते है। हमारे ऋषियों ने भी कुछ खोजा है। तो हम भी उसको खोजें जो सदा है। उसको खोजें जो सब में हैं । उसके खोजने का समय अभी आया है। 
 सदा एक समान रहने वाली कॉन्शसनेस तुम्हारी इसी कॉन्शसनेस में  छुपी है। जवानी कुछ दिन बाद आती है। आ गई इसलिए  वह जा रही है। लेकिन एक हमारे साथ हैं जो कभी नहीं आता कभी नहीं जाता। वह कभी युवा भी नहीं होता कभी वृद्ध भी नहीं होता। कभी प्रकट  नहीं होता कभी तिरोहित भी नहीं होता। यद्यपि हर चीज को बुद्धि चाहिए। कुछ ना कुछ जो भी हम करते हैं बुद्धि से ही करते हैं। लेकिन परमात्मा के लिए ही हमें विशेष बुद्धि मिली है। ऐसे सत्य को जो चाहो उसका नाम रख लो। अभी अभी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें यही है कि आत्मतत्व को जानना चाहिये। अर्थात ऐसे सत्य को आप जानना चाहते हो जो सदा रहता है। ऐसा सत्य पाना चाहते हो जो सर्वत्र हैं। यदि हम को इंद्रियों पर संयम करना पड़े तो करो। हमें और कुछ जीवन स्टाइल बदलना पड़े तो बदलो। पर उसको हम पा करके 
ही जाएंगे। 
 न चेत् इहावेदिन् महति विनष्टी ।। 
यदि उसको यही नहीं जाना तो बड़ा नुकसान किया हमने।

नशे की आदत

अच्छे गायकों के बीच में कई बार अनिभिज्ञ भी बैठते हैं जो उस विद्या के जानकार नहीं हैं फिर भी वे गायकी का आनंद लेते हैं। यद्यपि वे ज्यादा गहराई में तो नहीं जाते पर गायकी का आनंद लेते हैं। इसी तरह इस सृष्टि की भी बड़ी गहराई है और इस सृष्टि का रहस्य मनुष्य ही जान सकता है। वह भी तब जब कोई गुरुमुख जनाए। इसलिए यह भी आश्चर्य है। “आश्चर्यवत्  पश्यति कश्चित् एनम्।”
   
      किसी किसी को गुरुओं पर, ग्रंथों पर, ऋषियों की सोच पर आश्चर्य होता है। एक मूर्ख से कहो कि जगत कुछ भी नहीं है, ब्रह्म ही ब्रह्म है तो उसे क्या आनंद आएगा?  करोड़ों लोग ऐसे हैं जो ईश्वर को, ब्रह्म को गप्प मानते हैं। यदि उनसे कोई ब्रह्मवेत्ता शास्त्रार्थ करे और कह दे कि जगत नहीं है तो वह हार जाएगा। क्योंकि सब गवाही उसके होंगे। कहते हैं कि उल्लुओं ने अपने समाज में प्रस्ताव पास करा लिया कि सूर्य नहीं है जैसे, तमाम राजनैतिक व धार्मिक नास्तिक लोग कहते हैं कि यह ईश्वर है ही नहीं। कभी- कभी आपको भी लगता होगा कि पता नहीं कि ईश्वर है भी  या नहीं? यह भी एक झंझट ही है।  इसलिए बहुत से लोग ज्यादा इस पचड़े में नहीं पड़ते।  फिर भी हम लोग पता नहीं तुम्हें इस पचड़े में क्यों फँसाते हैं? जैसे नशेड़ी नशे की आदत डलवाता है ऐसे ही हम लोग तुम्हें बिना मतलब के इस पचड़े में डाले हुए।
मैं झूठ नहीं बोलता,  कभी-कभी लगता है कि तुम्हें इस पचड़े में न डालूँ । तुम से कह दूं कि जाओ आराम से पति की सेवा करो, घर का काम करो, बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, देश का ख्याल करो। बाकी संत भी आपको इस पचड़े में कम डाल रहे हैं। वे सीधा-सीधा आपके काम की बात करते हैं, देश की बात करते हैं। और हम आपको पचड़े में डाले हुए हैं। क्यों पचड़ा कहते हैं? क्योंकि इसका लाभ तुम्हें अभी समझ ही नहीं आता । और हमें क्या लगता है? कि सब लाभ हो जाएं पर इस लाभ के बिना कोई लाभ लाभ नहीं है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

     क्या इससे बड़ा कोई लाभ है? या ऐसा कोई लाभ जो हानि में न बदल जाए? ऐसा कोई लाभ बताओ जिसमें हानि ना हो?  पुत्र हुआ तो क्या हानि नहीं होनी?  कुछ सुख मिला तो क्या वह जाएगा नहीं? सब जाता है। नहीं जाने वाला कोई तत्व है तो वही एक है और तो सब मात्र प्रतीति हैं। वे रहें तो क्या, ना रहें तो क्या ? दिखें तो क्या, ना दिखें तो क्या?  क्या फर्क पड़ता है इनके होने, ना होने का।

इसलिए वेदांत सुनने के पहले विवेक और वैराग्य जरूरी हैं और इसके साथ ही शरीर रहते थोड़ा कष्ट सहने के लिए तैयार होना, थोड़ा संयम रखना, प्रारब्धवशात् कष्ट आएंगे। शरीर है तो कष्ट आएंगे। हमें भी कष्ट हुए हैं। यदि यह समझें कि कष्ट नहीं होना चाहिए, हम तो परमात्मा के रास्ते पर चल रहे हैं तो ज्ञान निष्ठा में फिर पक्के नहीं हो पाओगे। इसलिए  यदि कष्ट आएं तो उन्हें झेलो। दुःख मिला, दुःख मालूम पड़ा लेकिन दुःख से हमारे अपने मोक्ष के प्रति भय नहीं होना चाहिए।


यस्य प्रसादत् पतित स्वपावनः भवनति संसार सुतारण शिवाः।
मंण्डलेश्वराणाम् परमेश्वरं हरिम् श्री परमानन्द प्रभुं ईशमाश्रये।।
           जिनकी कृपा को पाकर अत्यन्त पतित प्राणी भी परम पवित्र होकर संसार को तारने की सामर्थ वाले और कल्याणकारी बन जाते हैं मंण्डलेश्वरों के भी ईश्वर उन प्रभु श्री परमानन्द जी महाराज को मैं चरण शरण ग्रहण करता हूँ। ….शिवहरे

“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकरूपिणम् ।”
गुरु क्या हैं ?  गुरु बोध रूप हैं, चैतन्य रूप हैं, आत्म रूप हैं और साक्षी रूप हैं। गुरु साक्षी हैं। आपकी बुद्धि में जो साक्षी है, वह गुरु ही हैं। वे आपके भीतर बैठे हैं और आपको जान रहे हैं। आपके संकल्प को, आपकी वृत्ति को, आपकी चंचलता को, आपकी स्थिरता को परमात्मा जान रहे हैं। गुरु जान रहे हैं। परमात्मा आपके ह्दय में विराजमान हैं। वे आपके मन की एक – एक सैकण्ड की गति – विधि को जान रहे हैं। वे आपके सुमिरन को और श्वास की प्रक्रिया को भी जान रहे हैं। गुरु आपके भीतर विराजमान हैं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेगें कि बाहर के इष्ट गुरु, बाहर के इष्ट परमात्मा आपके मन को जानने वाले हैं; आपकी बुद्धि के साक्षी हैं; आपके मन के प्रत्येक संकल्प को जानते हैं; उसी दिन आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे ही गुरु तुम्हारे भीतर हैं। उनसे कुछ छिपा नहीं है। वो जो स्वयं ब्रह्म होकर इस ब्रह्मांड में विराजमान हैं और वैसा ही जो तुम्हें बनाने आये हैं जो तुम अपने को सिर्फ अमुक शरीर ही समझे बैठे हो।

सच्ची समझ

पुज्य गुरूदेव समझाते हैं,जब आत्मा का अनुभव होता है।तब वह सबको अपने में तथा अपने को सब में देखता है। भेद-भ्रम का नाश हो जाता है,भेद उपयोगिता नष्ट नहीं होती। भेद (वस्तुओं के बीच में स्पष्ट अंतर जैसे मकान,घडा आदि) का नाश नही होता। भेद भ्रम का नाश हो जाता है। वृत्तियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन साक्षी (आत्मा) में कोई परिवर्तन नही होता है। उदाहरण से पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—-

# जैसे-तत्त्वत: तत्व को जानने वाला)मिट्टी को जान लेने के बाद,घडे का और मकान का जो भेद है, वह भेद भ्रम नष्ट हो जाता है;भेद-उपयोगिता नष्ट नहीं होती।भेद की उपयोगिता तो रहती है,और उसका उपयोग भी होता है।(जैसे घडे में पानी भरना,तथा मकान मे रहना)

#तत्व दृष्टि और व्यवहारिक दृष्टि में भेद है।जैसे व्यवहार की दृष्टि से गहना है,अब यह गहना टूट गया, दूसरा गहना भी बन गया। तत्व की दृष्टि से “सोना ” गहना टूट जाने पर भी हैऔर दूसरा गहना बन जाने पर भी है। स्वर्ण का अभाव दोनों ही स्थितियों में नही है।

# पुज्य गुरूदेव बताते हैं, आत्मज्ञान की दृष्टि से ज्ञानी का कभी अभाव नहीं होता। तत्त्व की दृष्टि से ज्ञानी सदा वर्तमान है; लेकिन व्यवहार की दृष्टि से ज्ञानी कभी जगत में है,कभी नहीं है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि ‘जैसी मति होती है वैसी गति होती है’, यह अध्यात्म का एक सूत्र है। एक सूत्र और है कि ‘अन्त मति सो गति’ अन्त यानी मृत्यु के समय जैसी मति होती है वैसी गति होती है।

# श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि “अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त होता है। जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्ति रहित कर्म करते हुए ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।

# अध्यात्म में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि कर्म बन्धन नहीं हैं, उनके प्रति जो आसक्ति है, जो राग है वही बन्धन है। बन्धन के भय से कर्म छोड़ देना भी पाप है एवं आसक्ति त्याग कर कर्म करना ही मुक्ति का साधन है। निष्काम कर्म बन्धन नहीं बनता। किन्तु वे कर्म बन्धन बनते हैं जो आसक्ति, राग – द्वेष, ईर्ष्या की भावना से किये जाते हैं। कर्म का कारण शरीर नहीं मन है। मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। पाप पुण्य का फल न कर्म में होता है, न उसके फल में। वह कर्ता की भावना में होता है।

# अष्टावक्र जी कहते हैं कि “मैं मुक्त हूँ” ऐसा जो मानता है वह मुक्त है तथा अपने को जो बद्ध मानता है वह बद्ध है। केवल दृढ़ निश्चय के साथ मानना ही पर्याप्त है। मुक्ति कर्म का परिणाम नहीं, ज्ञान का फल है। आत्म ज्ञानी भी यदि अपने को बद्ध मानता है तो वह मुक्त नहीं है, वासना ग्रस्त है। वासनाएं उसे फिर खिंच लेंगी। आत्मज्ञान के बाद भी उसे मुक्ति की भावना करना आवश्यक है।

# यहाँ यह भेद समझ लेना चाहिए कि यह सूत्र जो कहा गया है वह अध्यात्मिक जो आत्मा का जिज्ञासु है, अपने स्व – स्वरुप में प्रतिष्ठित होना चाहता है उसके लिए कहा गया है, अज्ञानी, विषयों में रमण करने वालों के लिए नहीं कहा गया है।

इसलिए फालतू की फिक्रों को कुए में फेंके और आत्मसुख में गोता मारें..

चिन्ता से चतुराई घटे
घटे रूप और ञान।
चिन्ता बड़ी अभागिनी
चिन्ता चिता समान।
तुलसी भरोसे राम के,
निर्भय होके सोये
अनहोनी होनी नहीं,
होनी होय सो होय।

जब आप शाश्वत समझ जाते हैं तब तक ही चिंता है क्योंकि उसके बाद किसी चिंता का स्थान ही नही बचता।

क्या चेतन क्या चेतना

 एक चेतना है, एक चेतन है। यह आखिरी सूत्र है – चेतना और चेतन चेतना में परिवर्तन है। और भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, लोग तो पढ़ते- पढा़ते हैं पर गीता का मुख्य विषय क्या है? इच्छा द्वेष: सुखं-दुखं संघात्श्चेतना धृति।। यह चेतना भी प्रकृति का विकार है। शुद्ध चेतन नहीं चेतना! चेतना प्रकृति से मिली हुई चैतन्यता है इसलिए उसमें जगना है, सोना है, होश है, बेहोश है, कॉन्शसनेस है, सब कॉन्शसनेस है, अनकॉन्शसनेस है। पर चेतन कभी अनकॉन्शियस नहीं होता और साक्षी को, चेतन को चेतन रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं है, प्रयत्न चेतना को ही बनाए रखने का है।और चेतना बनाए रखने का एक अभ्यास करना चाहिए। समाधि क्या है? चेतना को देर तक बनाए रखना। और कुछ बनाए रखना नहीं! ख्याल बनाए रखना नहीं, देह ख्याल में बनाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना! श्वास चलाए रखना नहीं, चेतनता बनाए रखना, श्वास रहे ना रहे, चले ना चले! स्मरण में कुछ बनाए रखना नहीं, स्मरण में कुछ रहे ना रहे पर आप चेतना बनाए रखना! अभी क्या करते हो? चेतना में कोई चीज रखते हो, चाहे मंत्र ही रखते हो पर जब मंत्र चला जाता है तो कहो आप बेखबर हो गए थे, मंत्र भूल गए थे। तो…. मंत्र को तो भूल जाओ मंत्र को याद रखना ही नहीं। हां मंत्र को रखने की इसलिए जरूरत है कि आप समझ सको कि मंत्र गया या चेतना गई? मंत्र से चेतना चली गई, चेतना से मंत्र चला गया या चेतना ही चली गई? यह फर्क समझो! चेतना से स्मृति चली गई, चेतना नहीं! क्योंकि मंत्र आप को दिया गया है इसलिए इस बात से आप परेशान हो जाते हो कि मंत्र भूल जाते हैं, मन और कहीं चला जाता है! तो यदि मंत्र चेतना से चला गया और चेतना में कुछ और आ गया तो चेतना है कि चली गई? तो आप चेतना नहीं रखना चाहते आप का मंत्र रखना आप चेतनता समझते हो। गुरु ने मंत्र देकर फंसा दिया। इसीलिए विपश्यना वाले मंत्र भी नहीं जपने देते क्योंकि एक झंझट तुम्हें दे दी, एक बीमारी दे दी कि हमारा मंत्र चला जाता है! यदि मंत्र चला गया, आपके ध्यान में घर आ गया तो चेतना चली गई क्या? तो  चूकिं आप चेतना नहीं रखना चाहते, मंत्र रखना चाहते हो इसलिए दुखी हो गए कि मेरे ध्यान से मंत्र चला गया, मेरे ध्यान में घर आ गया। हम ना तो घर रखने को कहते हैं ना तो मंत्र रखने को कहते हैं और ना भगवान रखने को कहते हैं। हम कहते हैं आप चेतना को रखो! मंत्र रहे तो रहे, जाए तो जाए; घर आए तो आए, घर जाए तो जाए; ना हमें घर रखना है, ना मंत्र रखना है, ना कोई और रखना। हमें चेतना रखनी है! पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं!!

हम विश्वगुरु हैं, थे और रहेंगे

“आदि गुरुवे नमः। जुगादि गुरुवे नमः। श्री सद्गुरुवे नमः।” जो आदि गुरु ने कहा था वही दूसरे ने कहा, वहीं तीसरे ने कहा, वही चौथे ने कहा। “इदं परंपरा प्राप्त” यह हमने परंपरा से पाया है, हमारी कल्पना नहीं है। हम कोई स्वयंभू गुरु नहीं है। “हमारा जन्म हमारे गुरु ने दिया है।” जैसे तुम स्वयं नहीं पैदा हुए, तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हारा बाप है और तुम्हारा बाप भी स्वयं पैदा नहीं हुआ, तुम्हारा बाप अपने आप हुआ था क्या? तुम्हारे बाप का बाप भी पैदा हुआ, बाप के बाप के बाप का बाप भी पैदा हुआ। ठीक है? “बिना पैदा हुआ बाप कौन है? केवल “स्वयंभू” जो स्वयं था! वही सब का पिता है” इसलिए उसको हम “परमपिता” कहने लगे। क्यों? जब से वेजिटेबल घी के नाम बिकने लगा तब उसे शुद्ध घी कहने लगे। शुद्ध घी नाम पहले था क्या? अच्छा  सौ दो सौ साल  पहले  शुद्ध घी होगा क्या ? शुध्द घी तो था पर शुद्ध घी नाम नही था, घी था सिर्फ।  तो शुद्ध नाम कब पड़ा? जब से फर्जी घी बन गया। तो जब से फर्जी बाप बन गए तब उसे परमपिता कहना पड़ा कि लोग कंफ्यूज ना हो जाए। जैसे सभी जननी बन बैठी तब उसे जगज्जननी कहा गया। ठीक है? तो सच्चाई यही है। तो अब हमें क्या करना है? हमे दो ही चीजें जाननी है- एक तो हम “सत्” है और दूसरा जानना है “सर्वत्र”, दो चीजें समझ लो। लोग माने ना माने, चाहे हिंदू को सांप्रदायिक कहे चाहे दकियानूसी कहे, चाहे कट्टर कहे और जो भी आरोप लगा सकते हैं, लगाएं “पर सच है कि यदि सत्य को ठीक ठीक समझा है तो भारत ने समझा है! ठीक ठीक समझाया है तो हमारे वेदों ने समझाया है और भारत के गुरुओं ने समझाया है!”  इसलिए किसी देश का धन, सोना अच्छा होगा, किसी देश की राजनीति होगी, किसी देश में धन बहुत होगा। “हमारे देश में गुरु है ! हम गुरुओं के धनी हैं!” (अंग्रेज ) राजनीति में कितने खिलाड़ी रहे जब विश्व मे शासन किया है! विश्व गुलाम रहा है, विश्व! शायद आप भी नही समझते ,भारत जिनका गुलाम था अमेरिका भी उनका गुलाम था, रूस भी उन्हीका गुलाम था। विश्व को गुलाम बना के रखा है अंग्रेजो ने, इतने दिमागदार थे राजनीति में! आज भी अभी उन्हीं की भाषा चलती है। कही चले जाओ, हिंदी के बिना काम चल जाएगा। साउथ में भी जाओ, हिंदी नही चल रही इसी देश में। और देश में तो छोड़ो। आज भी अभी हम गुलाम है उनकी भाषा के। पर फिर एक ये कह दूँ…. राजनीति में उनके हम गुलाम हो गए। (काफी वर्षों तक वे) रहे, मुश्किल से अभी वो गए पर अभी उनकी गुलामी नही गई, उनकी मानसिकता नही गई। “पर उपनिषद् विद्या के लिए आज भी वे भारत ही आते है।” रूस के आते हैं , अमेरिका के आते हैं, और भी कई देश के आते है। “तो  गुरु खोजना हो तो भारत में !” जैसे सेव कश्मीर के, कही के कुछ, कही के कुछ। जैसे हमारे जन्मभूमि के पास अमौली की हवन सामग्री फेमस थी, लेकिन कही के लोटे प्रसिद्ध है, कही के ताले प्रसिद्ध है। ठीक है? ऐसे ही कही का कुछ, कही का कुछ विश्व मे प्रसिद्ध है। पर “अध्यात्म जो है वो भारत का था, भारत में आज है, और भारत में ही रहेगा। इसलिए विश्वगुरु हम थे, विश्वगुरु हम आज है, और विश्व गुरु हम रहेंगे।”

ॐ शांति: शांति: शांति:

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!

मोह क्या है?

देह दृश्य है तुम दृष्टा हो! कितने ही नजदीक हो, तो भी दृष्टा हो, देह दृश्य है! देह दृष्टा नहीं है, दृष्टा देह नही है! यह अभ्यास आज से शुरू करो! आज क्यों कहते हैं? क्योंकि आज देवोत्थान एकादशी है। एकादशी बहुत होती है पर आज देवता के उठने की जागने की तिथि है। तो देवता दृष्टा है, इस देवता को जगाओ। और जागना क्या है? यह तो रोज जागा है, नहीं तो दृश्य कहां से दिखता? जागता रोज रहा है। बिना दृष्टा के देह दिखेगा ही नहीं। दिख जाएगा? तो… बिना दृष्टा के देह नहीं दिखा फिर भी जागा नहीं कहलाते इसलिए आज जगाते हैं। आज दृष्टा दृष्टा होकर जागे! दृष्टा देह मान के न जागे। दृष्टा अपने को देह मान के जागे नहीं। वह तो सपना देख रहा है और सपना देखने का मतलब होता है कि सोया है। यद्यपि कोई भी जागे बिना सपना नहीं देखता पर जो सपने को सच देखने लग जाए उसे सोया कहते हैं। तो यह दृष्टा सोया हुआ है। आज जगाना है! फिर कहूँ, जागा तो था पर दृष्टा अपने को देह जानता था अर्थात देह को मैं जानता था, यही स्वप्न है। स्वप्न  होता ही तब है जब सत्य को भूल जाए। तो तुम देह कब अपने को मानते हो? जब सोए हो। मोह निशा सब सोवनिहारा, देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा!
यह दृष्टा सोया हुआ है। दृष्टा तो है पर सोया हुआ है। तो पहचान क्या है सोए की? कि देह को मैं मानता है। जो है नहीं वह मानता है। जो है नहीं वैसा मान लेवें  उसी का नाम सपना है और सपना बिना सोए होता नहीं है। और एक बात मैं दोहराता  रहता हूं कि स्वप्न में मृत्यु हो गई और मृत्यु का दुख जो मरता है उसे होता है कि नहीं? जो सपने सिर काटे कोई स्वप्न में किसी ने सिर काट लिया तो दुखी कौन होगा? जिसका सिर काट लिया। और जिस का सिर काट लिया वह दुखी है! तो दुखी है तो जिंदा है कि नहीं? बिना जिंदा हुए दुखी हो सकता है ? लोग दुखी हो, खुद दुखी ना हो तब तो हम मान ले कि मर गया। दुखी भी है, मर भी गया है और पता भी उसी को है तो इसे सपना नहीं कहे? और इसे बेहोशी नहीं कहे? इसको मोह नहीं कहे? कई लोग मोह का अर्थ ही बदल लेते हैं। आप लोग भी मोह का अर्थ करते हैं कि हमें परिवार से मोह है पर मोह यह है ही नहीं। मोह यह है कि आप दृष्टा होकर अपने को दृष्टा नहीं मानते देह मानते हो यही मोह है।