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निर्ममेति

एक बार दीपक कहने लगा कि “जिस घर में मैं जलता हूं, उस घर में मैं अंधेरे को नहीं आने देता”। हमने कहा भई! ज्यादा न बोलो, जरा संभल के बोलो। ये कहो “जहां मैं रहता हूं, वहां अंधेरा आता ही नहीं है”। वहां अंधेरा रहता नहीं कि तू आने नहीं देता? अंधेरे को तो कोई धक्का दिये रहता है , जो नहीं आने देता । कोई रोके रहता है उसे?
“मेरा है ” कहते ही बंधन..
अभी जब यहां सत्संग चल रहा था, हम लाउडस्पीकरों की आवाज सुन रहे थे। इधर चार स्पीकर लगे हैं, उधर दो लगे हैं। हम खड़े होकर यह पता लगा रहे थे कि कहां की आवाज सुन रहे हैं? एक बालिश्त के फर्क में हम इधर के स्पीकरों की आवाज सुनते थे। और एक बालिश्त के फर्क से खड़े होते ही यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह आवाज होती है। केवल एक बालिश्त की दूरी का यह प्रभाव है। सच तो यह है कि एक बाल बराबर दूरी का भी यही प्रभाव होगा। यदि मशीन से सुना जाए, तो बाल बराबर इधर आते ही यह आवाज़ सुनोगे और बाल बराबर उधर जाते ही वह आवाज़ सुनोगे। एक सीमा रेखा होती है, बस इतना ही फर्क है।
जब भौतिक जगत् में, एक बाल बराबर दूरी से इतना फर्क पड़ सकता है, तो “मेरा नहीं है , भगवान का है” की जमीन पर खड़े होते ही, बस इतना सा ख्याल करते ही, आदमी मुक्त हो जाता है और “मेरा है” यह ख्याल आते ही वह बंध जाता है, फंस जाता है।

“द्वे पदे बंद मोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन् र्तनिर्ममेति विमुच्यते।।”

“निर्ममेति”, “मेरा नहीं है”, कहते ही मुक्त हो जाता है और “मेरा है”, कहते ही बंध जाता है। मैं कहता हूं, यह तो एक सूत्र है। ऋषियों ने ऐसे लाखों सूत्र दिए हैं। एक भी सूत्र पकड़ लो, तो मुक्त हो जाओगे।

परमधाम

अब एक शर्त है कि पहले यह जो “मैं” चेतन है, इस चेतनता को जागृत रखूं; क्योंकि मैं जागृत में ही मिल सकता हूं। यद्यपि मैं सुषुप्ति में देह से संबंध नहीं रखूंगा; परंतु नींद मुझे इतना दबोचेगी कि मुझे अपना ही होश नहीं रहेगा। ब्रह्म का होश कौन करेगा? ब्रह्म का होश, ब्रह्म में स्थित होने का एहसास मैं नींद में कैसे कर सकूंगा?—यद्यपि जब जीव को नींद आ जाती है तब जगत से संबंध टूट जाता है और नींद में ब्रह्म निरीह होता है। परंतु ऐसा ब्रह्म होने से क्या लेना – देना?—यदि नींद में ब्रह्म मिला तो जागृत में भी तो ब्रह्म से ही मिला है। ब्रह्म से अलग तो जीव हो ही नहीं सकता।
जागृत में चेतना की जो दिशा दृश्य की ओर है; वह चेतन की ओर हो जाए। अर्थात चेतन जीव चेतन आत्मा में है, ऐसा ख्याल करें। “मैं” जो हूं निर्विकार चेतन में हूं, “मैं” निराकार चेतन में हूं, “मैं” अनादि – अनंत चेतन में हूं, “मैं” संसार में रहने वाले ब्रह्म चेतन में हूं। मेरा निवास “ब्रह्म” में है, “चैतन्य” में है और मैं चेतन रहकर ही यह जानूं।
यह ध्यान रहे कि जिस समय आप चेतन नहीं रहेंगे, नींद में हो जाएंगे तो खो देंगे। इसीलिए मैं चेतन रहकर यह जान लूं फिर मुझे नींद आये, कोई हर्ज नहीं। नींद तो आएगी, नींद का विरोध भी नहीं है। बस, आप जागृत अवस्था में अपने को चैतन्य हुआ अनुभव करें। इसीलिए हम चेतन को अपना धाम मांगते हैं। जहां रहा जाए, उसे क्या बोलते हैं? धाम या घर। वैष्णव लोग परमात्मा को भी धाम कहते हैं। “अहं ब्रह्म परं धाम” यहां ब्रह्म को परमधाम कहा गया है। जो परमधाम है, उसमें मैं रहूं। जो परम चेतन है, जो अखंड चेतन है, उस चैतन्य में रहता हुआ अनुभव करूं। मैं चैतन्य में हूं, देह में नहीं।

श्वेत कागज

मैं जीवन को एक कोरे कागज की भांति मानता हूं, जिसमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। किंतु, ऐसा नहीं मानता कि जो लिख दिया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि, प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखा ही जायेगा; किन्तु, मिटाने में कुछ कठिनाई अवश्य होगी। इस तरह अनुभव से गुजरते- गुजरते एक दिन अच्छा लिखने की योग्यता आ जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयगा कि प्रतिक्षण लिखते हुए भी कागज कोरा ही बना रह जाएगा। ऐसा होने पर भी लोग पढ़कर लाभ उठा सकेंगे; किन्तु, उसके जीवन में कुछ भी अंकित नहीं रह जाएगा। और जहां अंकित नही रहेगा वही मुक्त विचरेगा। शुद्ध भावना, निश्चल मन, विशाल मन के साथ प्रायः मनुष्य हर दिन कुछ न कुछ नया लिखता है और उसे याद करता, ढोता रहता है। जबकि ब्रह्म समझने के बाद, आत्मा-परमात्मा समझने के बाद, इस नाशी संसार को समझने के बाद याद रखने जैसी कोई चीज ही नही रह जाती। निराकार को कौन याद रखे याद के लिए तो आकार की आवश्यकता है पर यदि हर आकर में जिस दिन तुम मुझ निराकार को ही देखोगे तुम मुक्त मेरे जैसे ही हो जाओगे; कृष्ण का गीता में कहा ये कथन शत प्रतिशत सत्य है…..अस्तु

याद

मैं तुम्हें एक सूत्र बताता हूं। आज से जब ध्यान में बैठोगे, तो यह ख्याल करने की कोशिश करना कि तुम रहे हो या नहीं? तुम पहले से ही निर्णय मत ले लो।यह बात तुम अपने से ही पूछो,जब तुम देख रहे थे या सुन रहे थे,तब तुम्हारा ज्ञान मौजूद था क्या? नहीं तो ज्ञान तो रहेगा; ज्ञान का ज्ञान नहीं रहेगा। ध्यान का ध्यान नहीं रहेगा। मन तो रहेगा; पर, उसका पता नहीं रहेगा। साक्षी तो रहेगा; पर,सा‌क्षी का ज्ञान नहीं रहेगा। तुम देखते समय या सुनते समय अपने आप से पूछ लेना, जो तुम्हे मालूम पड़ रहा है,क्या तब ज्ञान के बिना मालूम पड़ रहा है? तुम्हें तुरन्त ही यह लगेगा कि ज्ञान का ध्यान आ गया है। द्रष्टा पर ध्यान लौट आया है।
तुम्हारा दृश्य में ध्यान लगा रहता है; विषय में ध्यान उलझा रहता है। अन्य बातों में ध्यान उलझा रहता है। यदि यह प्रश्र करोगे कि क्या अन्य की प्रतीति बिना तुम्हारे है क्या? तुम्हें तुरन्त ही अपनी याद आ जाएगी। तुम्हें अपनी याद आती रहेगी। फिर तुम कहोगे कि आज तुमको अपनी याद आती रही। याद रहेगी तो नहीं? याद आती रही। कुछ दिनों के बाद देखोगे कि अपनी याद बनी रही। फिर, इसके बाद कहोगे कि तुम्हें अपनी याद की ज़रूरत ही नहीं है; हम हैं ही। बिना हमारे कुछ होता ही नहीं है।

ब्रह्म बोध


ब्रह्म बोध किसे कहते हैं ?


अस्मिता जब सारे विश्व के साथ हो जाती है, तो उसी को ब्रह्मबोध कहते हैं। इसीलिए, “विश्वरूप रघुवंश मणि” कहा है। भगवान् विश्वरूप हैं। जो आदमी अस्मिता को पार कर जाता है, उसकी अस्मिता विश्वरूप हो जाती है। उसका “मैं” “”सर्व”” हो जाता है और वह “”सर्व”” हो जाता है। अपने को सब में देखता है, सब को अपने में देखता है। यह गीता में लिखा है। लेकिन, हमें दिखता है क्या? बात सच्ची है; गीता में लिखी है और भगवान् की वाणी है। गलत नहीं है। लेकिन, हमें अभी समझ में नहीं आती।
ज्ञानी अध्यापक ने सवाल लगाया और उत्तर सही निकाल दिया; लेकिन, जब हम सवाल लगाने बैठे, तो उत्तर नहीं आया। हमें तो नहीं आया ‌ हमें तो सब अपना नहीं दिखता। हम नहीं कहते कि गीता गलत है। लेकिन, हमारे लिए गीता का तब तक कोई अस्तित्व नहीं है, जब तक हमें सब अपने नहीं दिखते। हम अपने को सर्वत्र नहीं देख पाते। यदि हमारी अस्मिता, अपनी अस्मिता को “है” में अभिन्न करे; यदि, बुलबुला अपने को पानी हो जाने दे; पानी “हूं” जानकर फिर सब बुलबुलों को देखे; तो किस बुलबुले को कहेगा कि “मैं” नहीं हूं?
यदि एक बार मेरी अस्मिता गल जाए, ब्रह्म हो जाए और ब्रह्म होने के बाद फिर अस्मिता खड़ी हो, तब वह कहेगी कि सर्व एक है। बुलबुले हैं तो अलग-अलग (सब में भिन्नता है ); लेकिन , वे पानी के माध्यम से एक हो गए हैं। देखना यह है कि पानी की दृष्टि में वे क्या हैं ? पानी है और पानी के स्मृति के माध्यम से वे देखते हैं। बुलबुला सीधे ही यह नहीं कहता है कि “यह” सब “मैं” हूं; क्योंकि, यह कहना ही “मैं” को “यह” से अलग करता है। बुलबुले का “यह” कहना ही अलग होना है। तुम “मैं” हूं, यह कहना नहीं जंचता। औरत भी “मैं” हूं; शराब भी “मैं” हूं और जानवर भी “मैं” हूं; यह नहीं जंचता। बुलबुला (ज्ञानी ) सीधा यह वाक्य नहीं कहता कि “मैं” तुम हूं। “मैं” लहर भी हूं और “मैं” फेन भी हूं , ऐसा नहीं कहता।

जहाँ हैं वहां से शुरू करें

अब कोई व्यक्ति भयवश भी झूठ बोलता है, स्वार्थवश भी झूठ बोलता है, तो जिस में भय नहीं है, स्वार्थ नहीं है वह झूठ नहीं बोलता। उसकी वाणी शास्त्र है! उसके उपदेश को मानना! कथा भी…… स्वार्थी लोग भी कथा करते हैं, अपने स्वार्थ की बातें ज्यादा कहते हैं। सत्य कम कहते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ सिद्ध होगा। सत्य बोले तो स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जैसे एक बात हम कभी बोलते हैं – यतयाः कंचनं दत्वा यति को स्वर्ण दान देने वाला, तांबूलं  ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचारी को पान देने वाला, चौरेपि अभयं दत्वा  और अपराधी प्रकृति वाले को अभय देने वाला कि तुम चिंता ना करो हम तो हैं माने अपराधी को अपराध करने की स्वतंत्रता देने वाला , दाता नरकं व्रजेत् देने वाला नर्क जाता है।
इसलिए जो स्वार्थी होगा वह सत्य नहीं कहेगा। आप्तकाम पुरुष जो कहते हैं वह प्रमाण हैं। यदि वह कहे तो झूठ नहीं है। पर सबका कहा सत्य नहीं हो सकता। तो……. वह भी कह रहे थे अनुभव प्रमाण नहीं है। हां, अनुभव के आधार पर आपको यहां से चलना होगा। जैसे हम जन्म मरण का अनुभव करते हैं पर यह हमें पसंद नहीं है, इसके छूटने की इच्छा होगी तो आप अपने अनुभव से ही चलेंगे। इसको कहते हैं जो जहां खड़ा हो वहीं से तो चलेगा। तो वह चलना अलग है। आप दिल्ली से हरिद्वार आना चाहते हैं तो दिल्ली से चलेंगे। अब दिल्ली वाला आदमी मोदीनगर से नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? और मोदीनगर वाला व्यक्ति मोदीनगर से ही चलेगा और रुड़की वाला रुड़की से ही चलेगा, दिल्ली से नहीं। हरिद्वार ही आना है, पर वह जहां खड़ा है वहीं से चलेगा। तो बात यह है कि हम कहां खड़े हैं! हम मनुष्य है कि हम जीव है? क्या है हम? तो जो हम हैं वही से तो यात्रा शुरू करें! यदि हम जन्म मरण वाले हैं तो अविनाशी से यात्रा शुरू नहीं होगी। अविनाशी तक तो यात्रा पूरी होगी, वह आपका गंतव्य है, आप वहां पहुंचना चाहते हैं। आप दुख में हैं तो दुख से पार जाने की इच्छा होगी। होगी ही! और पार जाने के लिए आप चलेंगे। अब यह तो नहीं कि पहले आप आनंद में खड़े हैं, शांति में खड़े हैं, मुक्त है, तो यात्रा की क्या जरूरत? यदि हरिद्वार में ही हो, अखंड परमधाम में ही हो तो अब यहां से कहां जाना? तो जैसे व्यवहारिक जगत में हम अपनी जगह से ही चलेंगे ऐसे ही आध्यात्मिक मार्ग में जिस अनुभूति पर हम टीके है उस अनुभूति की ओर जाएंगे जो हम चाहते हैं। अभी हमें अनुभूति है जन्म मरण की। यह हमारे लिए कल्पना नहीं है। यह हमारे लिए अभी यथार्थ है। यह हमारा सत्य है कि हम मरने वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम दुख सुख वाले हैं, हमारा सत्य है कि हम करते हैं, हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं। तो यहां से यात्रा शुरू करोगे। शास्त्र और सच्चा गुरु कथा वहीं से शुरू करता है जहां तुम हो और आगे पहुंचाता है धीरे धीरे। तो यह आवश्यक है जहां हम हैं वहां से यात्रा शुरू करेें।

समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

मन के पार


“अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।”


अर्जुन से भगवान कह रहे हैं कि तू पाप करने वाले पापियों में अपने को सबसे बड़ा पापी समझता है; यदि, सारी दुनिया के पापी छांटे जाएं तो वह प्रथम नंबर का पापी नहीं हो सकता। अगर बहुत बड़े पापी हो, तो भी पीछे रह जाओगे। तुम चाहे जीवन भर पाप करो, फिर भी ऐसे – ऐसे दुराचारी हैं, जिनका तुम मुकाबला नहीं कर सकते। यदि तू प्रथम नंबर का पापी है, तो भी “(सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं–संतरिष्यसि “)आ, ज्ञान की नाव में बैठ जा। तू आत्मबोध की, ब्रह्म विचार की नाव में बैठ जा। तू ज्ञान की नाव में बैठते ही एकदम पार हो जाएगा और सारे पापों से तेरा छुटकारा हो जाएगा।
मैं तुम्हें एक बात बताऊं। स्वप्न में डाका डालो, चाहे कत्ल करो, चाहे बुराई करो, चाहे जो कुछ कर डालो; वहां जागकर ही ताप से छूट सकते हो। यदि स्वप्न में डाका पड़ गया हो और रईस होना चाहते हो, तो दस बरस लगेंगे कमाकर पूरा करने में। राज्य छिन गया हो, तो दूसरे राजा पर चढ़ाई करने पड़ेगी; फौज जुटानी पड़ेगी? लेकिन, नींद खुल जाए तो कितनी देर लगेगी? भगवान् कहते हैं कि पापी लोग पाप से छूटने के लिए गंगा नहाते – नहाते मर जाएंगे, तब भी पता नहीं छुटकारा होगा कि नहीं होगा। लेकिन, एक बात कहते हैं कि यदि तेरी नींद खुल जाए, यदि तुझे आत्मा का पता चल जाए कि तू कौन है, तू आत्मा में जाग जाए तो तू एकदम पापों से ऐसे पार हो जाएगा, जैसे कभी पाप किए ही न हों। जैसे दुनिया में पाप हैं ही नही।
“यदज्ञानादभूद् द्वैतं ज्ञाते यस्मिन्निवर्तते,
रज्जु सर्पवदत्यन्तं वन्दे तं पुरुषोत्तमम्।”

सत्संग से संसार व मन के पार जा सकते हो

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

कौन है? जो कभी नष्ट नहीं होता

साक्षी ही साक्षात ब्रह्म है। इसे विचारो। कब विचारोगे? क्या बुद्धि टिकेगी?  देखो हम अपने बताएं, जब ध्यान में रोशनी हुई तो बड़ी आसानी से टिक गए। टिके तो नहीं रहे पर टिक गए। ध्यान में टिक गए, आनंद में टिक गए। आप भी आनंद टिक जाते हैं ना? फिर क्या टिके ही रहते हैं?  जवानी में तुम कैसे टिकोगे, जब जवान ही नहीं टिकेगी। बचपन में तुम कैसे टिके  रहोगे? जब जगते थे, बचपन था। फिर सो गए, फिर बचपन। फिर जगे, फिर बचपन। धीरे-धीरे आप जगते-सोते रहे और बचपन खिसकता गया।फिर जवानी आ गई, उसमें तुम टिके रहना चाहते थे। तुम सो जाते थे और  जवानी तुम्हारे जगने-सोने पर भी जवानी रुकी नहीं।
तुम सोओ चाहे जागो, जवानी धीरे-धीरे सरक रही है और सरक गई। अब बुढ़ापा आ गया। यद्यपि बुढ़ापा अच्छा तो नहीं है पर मरने से तो अच्छा ही है। तो बुढ़ापे को ही बचा के रख लो। कई बूढ़े बेचारे इंजेक्शन लगवा कर, ऑक्सीजन चढ़वा के, हमारा हाथ सिर पर रखवा के बुढ़ापे को बचाने में लगे हैं। संस्त्रति संसारा, जो सरकता रहता है। संसार सरक जाए तो सरक जाए पर तुम भी थोड़ी देर को सरक जाते हो। जवानी बनी रही, पर तुम कहीं चले गए थे क्या? चाहे जहां गए हो, स्वप्न में गए, नींद में गए पर छोड़ तो गए। जवानी से फिर जागे,  फिर प्यार कर लिया, फिर सो गए,  फिर प्यार कर लिया। है कोई ऐसा जो चौबीसों घंटे स्त्री या पुरुष से प्यार कर सके,  सोए ना? 
भगवान को तो छोड़ो, यदि तुम स्त्री या पुरुष से अखंड प्यार कर सको तो मुक्ति की गारंटी मैं लेता हूँ।  हमारे एक मनोहर दास संत हुए हैं वो  कहते थे कि हटाओ।  ताश खेले फिर कहेंगे कि ये भी हटाओ। प्यार करो अब यह भी हटाओ, सो जाओ। तो कौन ऐसा है जो संसार कभी छोड़ता नहीं है। संसार से इतना प्रेम कोई कर ही नहीं सकता कि सदा जाग सके। तुम पत्नी से प्रेम करते हो,  तुम्हें चुनौती है कि तुम पत्नी को थोड़ी देर के लिए भी न छोड़ो। तुम्हें धन से प्यार है, मैं तुम्हें रुपया दूँगा गिनते रहना पर सोने नहीं दूँगा। कोई इतना कर ही नहीं सकता। कहने का आशय इतना है “कि जो दिसे सो, सकल विनाशी” जो दिख रहा है वो एक दिन नष्ट होगा ही इसलिए ऐसे को जानो खोजो मानो जो गुरुदेव बता रहे है जो की कभी नष्ट होता ही नही कहीं आता जाता है नही जिसका जिक्र गीता में श्री कृष्ण करते हैं।