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सबसे बड़ा पाप

कई जगह शादी को संबंध भी बोलते हैं, रिश्ता भी बोलते हैं, विवाह भी बोलते हैं। तो तुम्हारा अभी नाशी से रिश्ता हुआ है। शरीर नाशी है, इससे तुम्हारा रिश्ता हुआ है और इसीलिए चिंता है। तुमने जिससे ब्याह किया है ना! वह मांगलिक ग्रह वाला है, वह जाएगा। और यह रिश्ता सब ने कर रखा है। यह मत समझो कि गृहस्थी करते हैं, साधु तक किए बैठे हैं यह रिश्ता नाशी से। और जब ऐसे मांगलिक से कर लोगे तो चिंता होगी ही कि यह नहीं रहेगा, चला जाएगा। तो अब हमें क्या करना है? यहां तो ( श्रीमद्भागवत कथा में ) रुक्मणी जी का श्याम से, भगवान से विवाह हुआ है। तो तुम्हारा भी भगवान से ही कराना पड़ेगा पर रुक्मणी जैसी बात हो! कोई किसी के कहे से न कर ले। नहीं तो  उनके घर के लोग कहीं और कराना चाहते थे, ठीक है! तो आप भी अभी तो बिना किसी से कहें, सहज ही शरीर से तुम्हारा रिश्ता हो गया है, संबंध हो गया है। यह शरीर आपका हो गया है, आप इसके हो गए हो। इसके धर्म आपके और आपका धर्म इसका हो गया है। जैसे लोहे को गरम आग में डाल दो तो यदि लंबी लंबी सरिया है तो आग लंबी लंबी हो जाती है और सरिया गरम नहीं है पर वह गर्म हो जाती है, सरिया का धर्म आग को मिल गया। लंबाई सरिया की है वह मिल गई आग को और गर्मी किसकी है आग कि, वह मिल गई लोहे को। इसको अन्योन्याध्यास  बोलते हैं। तो जो जीव है वह देह हो गया और जो जड़ है वह चेतन हो गया। वह चेतन हो गया क्योंकि तुम्हारी चैतन्यता देह को मिल गई और देह की जड़ता, मृत्यु तुम्हें मिल गई। यह अन्याेन्याध्यास है। तो इसका तो हमें तलाक दिलाना पड़ेगा। शादी तो बाद में करेंगे पहले तलाक दो। अष्टावक्र गीता में कहा है यदि देहं पृथक्कृत्य चितिविश्रम्य तिष्ठसि ।अधुनैव सुखी शांतो बंध मुक्तिर्भविष्यसी।।यदि तुम यही देह से मैं पन हटाओ, देह से रिश्ता तोड़ो और चैतन्य में विश्राम करो, अपना संबंध अंतरात्मा से कर लो तो अभी मुक्त हो जाओगे। इसलिए अब क्या करना है? यह मैं जो है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार यह  चार ही इस देह को  मैं मानते है। यही मुड़कर के  करके आत्मा को, स्वरूप को मैं मान सकते है। अभी मैं को सीधा सीधा नहीं….. जैसे  मैं देह नहीं है, मैं ने देह का अभिमान किया है।  देह अभिमान तो मैं ने किया। यदि नींद ना खुले तो देह का अभिमान होगा क्या? देह में मैं पन नहीं हुआ, इसमें रहने वाला  चिदाभास कहो या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार कहो उसने इस देह से मैं का रिश्ता जोड़ दिया, इसको मैं बना कर मेरे बना लिए। फिर मैं-मेरे का दुख हो गया। इसलिए अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश बस यही पांच क्लेश है। और यही सबसे बड़ी परेशानी, भ्रम की तुम ये शरीर हो, नाम हो, रूप हो जिस दिन कोई भी व्यक्ति इसे सही सही समझ गया कि वो शरीर नही, ये शरीर उसका है जो कि प्रारब्ध वश मिला है इसमें रहने वाला वो तत्व जिसके निकल जाने से ये निष्क्रिय हो जाता है किसी काम का नही रहता वो कौन है उसे जानो ये उनके जानने को मिला यही मानव देह कुंजी है इसलिए ही ये देह रूपी मौका उसे मिला है क्योंकि जानवर ये नही सोच सकता। आप ही सोच सकते हो समझ सकते हो। इसलिए मेरे गुरुदेव कहते है-

“देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप हैं।

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्रों का ये बाप है।।

तुम भी अवतार हो सकते हो

श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक तरह के विषय आते हैं जिससे हमें सीखने को मिलता है। आज एक यह सीखने को मिलेगा की जैसी हो भवितव्यता तैसी मिले सहाय जैसा होना होता है वैसे सहयोग करने वाले मिलते हैं। आपने जावे कहां पर ताहि तहां ले जाए।। चूंकि कंस की मृत्यु के लिए भगवान का जन्म होना है तो आपने सुना ही है कि पहले वह बहन को ही मार देना चाहता था। पर सलाह देने वालों ने कहा कि बच्चे को मार देना। बहन को क्यों मार रहे हो? तो सोचा कि चलो आठवें बच्चे के लिए कहा है तो आठवें को मार देंगे। तो किसी ने कह दिया कि बीच में भी आठवां हो सकता है। तो वह तो  एक एक करके सभी बच्चे मारने लगा। यह सब होते हुए भी हुआ वही जो  होना था। तो जो होना है वह होता ही है। दूसरा है भगवान के जन्म का विषय भारत यद्यपि वेदांत और अध्यात्मिक ज्ञानी गुरुओं का देश है, बहुत लोग अवतार भी मानते हैं पर  हमारी दृष्टि से अवतार नहीं माने तो हम बहुत कुछ खो देंगे। हमारा सब का जन्म  वासनाओं से होता है। कोई ना कोई पहले वासना थी जो यहां आए इस जन्म में कोई वासना होगी तो अगला जन्म लेंगे। यदि कल्याण की अधिक वासना होगी, मोक्ष की वासना होगी तो ज्ञान हो जाएगा और मुक्ति प्राप्त करेंगे।

पर भगवान कोई अपनी वासना से नहीं आते। उनको जब अपने भक्तों का उद्धार करना होता है तब वह अवतार लेते हैं। कहते हैं ना निज इच्छा निर्मित तनु अपनी इच्छा से शरीर बना लेना। हमारा शरीर हमारी इच्छा से नहीं वासना से बना। परंतु भगवान को जो जो करना है वैसी ही सामर्थ्य लेकर के आए। हम लोग चाहे भी तो नहीं कर सकते। इसलिए भगवान का, अवतारों का जो शरीर है वह आग में नहीं जलता, गड्ढे में फेंकने पर भी नहीं मरता, तो ऐसा शरीर हमारा तो नहीं है, हम आग से जल जाएंगे। हमारा शरीर यदि पहाड़ी से फेंक दिया जाए तो बिगड़ जाएगा। तो जो भगवान हैं वह जैसी जरूरत वैसा शरीर लेकर अपनी इच्छा से आते हैं। हमारा शरीर सब तरह की क्षमता लेकर नहीं आया इसलिए भगवान के स्मरण का, उनके दर्शन का, उनके सुमिरन का, उनके ध्यान का बड़ा लाभ होता है। यही लाभ उठाते उठाते आप जिस दिन परमात्मा को समझ गए और अपनी आत्मा में उसको एकीकार मान लिया जान लिया उस दिन तुम भी परमात्मा हो जाओगे। तुम भी अवतार लोगे लोगों का कल्याण करने न कि पुरानी चाहों को इस जन्म में पूरा करने आओगे और नई चाहें बना के फिर नया देह पाओगे।

सोचो!

“एक अभ्यास को काटने के लिए दूसरा अभ्यास  चाहिए विरोधी। तो सोते समय, सोने के पहले ‘लेटा हूं’ मान कर मत सो, ‘दृष्टा हूं’ सचमुच यह स्मरण करने के बाद सो जाओ।” कुछ देर दृष्टा  और लेटे समय दृष्टा तो चलते समय भी दृष्टा, बैठे समय भी दृष्टा! देह चलता हो बैठा हो लेटा हो, देह की स्थिति  बदलेगी। पर “बैठे में भी दृष्टा, लेटे में भी दृष्टा, चलते में भी दृष्टा! इसको मंत्र(समझो)! जो मंत्र दिया जाता है वह मंत्र नहीं, यह मंत्र है। और दृष्टा ही …...”एको देवा सर्वभूतेषुगूढ़ा सर्वव्यापी सर्वभूतांतरात्मा कर्माध्यक्ष सर्वभूतादिवासा साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।” मैं ब्रह्म हूं इसका शायद विश्वास करना पड़ेगा, ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रमाण चाहिए, अनुभव चाहिए। पर द्रष्टा होने के लिए आपको कहीं से उधार अनुभव नहीं लाना। सिर्फ एक बता दिया, “आप हो द्रष्टा, सचमुच दृष्टा हो! यदि देह के दृष्टा ना होते तो ‘मैं देह हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता, ‘बैठा हूं’ यह भी ख्याल नहीं आता। बैठा हूं यह ख्याल बाद में आया, किसको? दृष्टा को! इससे सरल कोई चीज नहीं हो सकती।” मुझे बहुत याद नहीं है पर फिर भी शायद ऐसा ही है, महर्षि रमण ने  सोहम् कहने को मना किया है, शिवोsहम् कहने को भी मना किया है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ भी शायद नहीं कहा। क्याेंकि उसमें शायद कुछ लाना पड़ता है। पर “दृष्टा होने में कुछ लाना नहीं पड़ता, कोई शास्त्र नहीं, कोई और चीज लानी नहीं” तुम देह को जानते हो इसलिए इस अभ्यास में कोई कठिनाई नहीं है। हां, प्रमाद है, आलस्य है, लापरवाही हो सकती है गर ध्यान ना दो। पर दृष्टा तो हो! और “दृश्य से दृष्टा भिन्न होता है। दृश्य और दृष्टा एक हो नहीं सकते।” हमको जब पढ़ाया जाता था तो यह बताते थे – घटदृष्टा घटाद्भिन्ना।। घड़ा का देखने वाला घड़े से अलग होता है। इसी तरह देह का दृष्टा भी देह से भिन्न होता है। दूर नहीं कहते, भिन्न! जैसे यह उंगली दूसरी उंगली से भिन्न है। भिन्न  माने कितनी दूर? जैसे एक हाथ दूसरे हाथ से भिन्न है। देखो यह दो हाथ है, दायां और बायां, दोनों भिन्न है। ठीक है?  जुड़े हो तब भी भिन्न है। तो तुम पास हो या दूर हो? तुम दो चार मिल देह से दूर चले जाओगे, चले जाओ तब द्रष्टा हो गए या देह से अलग हो गए? ऐसा भ्रम मत पालो! “देह दृश्य है, तुम दृष्टा हो! कितने नजदीक हो, तो भी द्रष्टा हो, देह दृश्य है! देह द्रष्टा नहीं है और दृष्टा देह नहीं है! यह अभ्यास आज से शुरू करो।”

अपने विराट स्वरूप को पहचाने

पुज्य गुरूदेव बताते हैं ब्रह्म साक्षात्कार आत्म साक्षात्कार के बिना नही हो सकता। आत्म साक्षात्कार कैसे हो, पुज्य गुरूदेव उदाहरण से समझाते हैं—


1) जैसे जब दीपक जलता है, तो जो चीजें पास में होती है, वे प्रकाशित हो जाती है। प्रकाश चीजों के बारे में सोेचता नहीं है; वह उनके बारे में विचार भी नहीं करता।प्रकाश की तरह ही चैतन्यता तुम्हारे अंदर स्वभाव से है।उसे लानी नहीं है। बाहर से कोई योजना नहीं बनानी है। इसलिए तुम अपने अंदर झाकों।


2) पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि स्वामी राम ने तो यहाँ तक कह दिया जब भी तुम्हारा ध्यान पीर, पैगम्बर,अवतार आदि की तरफ जाता है, तो तुमने अपनी बेच दी। तुमने अपनी आत्मा को गवाँ दिया है। तुम कौन हो? मेरे और तुम्हारे मूल तत्व में कितना कम ज्यादा होगा?


3) इसलिए पुज्य गुरूदेव समझाते हैं थोडा विचार करने से,थोडा धैर्य रखने से,थोडा दिमाग लगाने से तुम भगवान हो जाओगे। खाली तथा निर्मल मन से सूक्ष्म तथा दिव्य बुद्धि से अभ्यास करके आत्मा का अनुभव करो। तुम स्वयं आनन्द स्वरूप ज्ञान स्वरूप हो।

4) एक बार देह का अभिमान गल जाए (अर्थात “मै” देह हूँ, यह वृत्ति छुट जाए)और चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, तो फिर जहाँ जहाँ मन जाए,समाधि ही समाधि है।समझाते हैं—

a) जब हमारे अन्दर से द्वैत समाफ्त हो जाता है,तब चैतन्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है। मन में केवल परमात्मा का भाव होता है।


b) यह द्बैत “मैं” के कारण जिंदा है। एक देह के कारण अन्य जिंदा है। इसलिए देह का भाव मिटाएँ।यदि नहीं मिटा पा रहे हो, तो अन्य देह बन जाए। वह देह यदि अपनी देह की अपेक्षा अधिक सच्ची लगाने लगे, तो इसको झूठा करना आसान हो जाएगा। जैसे अगर दूसरों का बचपन प्यार से देखें तो आपको अपना बचपन याद आ जाएगा।इसके लिए खाली मन तथा एकाग्रता की आवश्यकता है।


5) पुज्य गुरूदेव समझाते हैं; मन में अन्नत शक्ति है।इसका प्रयोग करें।आप मन के द्वारा इस प्रकार डूबना सीखे, स्मरण करना सीखे कि आप आप न रहे।आप व्यक्ति न रहे, आप विराट हो जाएँ।आप चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं।

इतनी सी बात समझ गए, मानो सब समझ गए


हमनेे देखा कि बहुत लहरें हैं, पूछा कि कहीं पानी भी है? तो लहरों ने साफ इंकार कर दिया कि पानी है ही नहीं। जब हमने बहुत कहा कि जरा तुम देखो तो की लहरें कब से बनी हो? उन्होंने कहा इतने दिन से। हमने कहा इससे पहले क्या था? उन्हें कुछ सोचना पड़ा । हमने पूछा कि तुम कितने दिन रहोगी? तो उन्होंने कहा इतने दिन तो लगभग रहेंगी ही। हमने कहा इसके बाद क्या होगा ? उन्होंने कहा कि कुछ पता नहीं। हमने कहा उस पता नहीं की ओर भी जरा जाओ तो? लहर तो यहां से यहां तक है। इस के अगल-बगल क्या है? तब उनको मानना पड़ा कि कुछ है जरूर। इसके बाद उन्होंने स्वीकार किया कि पानी भी है। फिर हमने पूछा कि लहर है और पानी है, तो इन दोनों में से तुम क्या हो? उसने कहा लहर का तो मुझे अनुभव हो रहा है; परंतु, मुझे लगता है कि मैं कुछ और हूं। तब उसने कहा कि पानी हूं और पानी ही लहर है। फिर हमने कहा कि जरा देखो लहर कितनी है और पानी कितना है? तो उसने ढूंढना शुरू कर दिया। इसके बाद उसने स्वयं कह दिया कि लहर है ही नहीं, सिर्फ पानी है । हमने कहा कि और क्या बचता है? तो उसने कह दिया कि और कुछ नहीं बचता है, रह जाता है केवल पानी।
इसी प्रकार से अगर हम अपने अन्दर जागें, तृप्त होने लग जाएं, तो फिर जिसको हम कहते हैं ‘नहीं है’, वही रह जाएगा और जिसको हम कहते हैं ‘यह है’, वह सब खो जाएगा। आज जो कुछ है, वह नहीं है और आज जो कुछ तुम्हारे लिए नहीं है ,वह है। इसीलिए, हम जिस परमात्मा को इन्कार करते हैं, वह है और जिसको हम स्वीकार किए बैठे हैं कि ‘यह है ‘, वह नहीं है। पहले यह खोएगा और वही होगा। उसके बाद वही रह जाएगा और जो भी कुछ होगा, वह वही रह जाएगा। फिर सब कुछ वही है। इस प्रकार से हमको अपने अंदर प्रवेश पाना है। इसके भी द्वार खोलने हैं, जिसके दरवाजे आज तक बंद हैं।

कर्म-धर्म

हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”

नशे की आदत

अच्छे गायकों के बीच में कई बार अनिभिज्ञ भी बैठते हैं जो उस विद्या के जानकार नहीं हैं फिर भी वे गायकी का आनंद लेते हैं। यद्यपि वे ज्यादा गहराई में तो नहीं जाते पर गायकी का आनंद लेते हैं। इसी तरह इस सृष्टि की भी बड़ी गहराई है और इस सृष्टि का रहस्य मनुष्य ही जान सकता है। वह भी तब जब कोई गुरुमुख जनाए। इसलिए यह भी आश्चर्य है। “आश्चर्यवत्  पश्यति कश्चित् एनम्।”
   
      किसी किसी को गुरुओं पर, ग्रंथों पर, ऋषियों की सोच पर आश्चर्य होता है। एक मूर्ख से कहो कि जगत कुछ भी नहीं है, ब्रह्म ही ब्रह्म है तो उसे क्या आनंद आएगा?  करोड़ों लोग ऐसे हैं जो ईश्वर को, ब्रह्म को गप्प मानते हैं। यदि उनसे कोई ब्रह्मवेत्ता शास्त्रार्थ करे और कह दे कि जगत नहीं है तो वह हार जाएगा। क्योंकि सब गवाही उसके होंगे। कहते हैं कि उल्लुओं ने अपने समाज में प्रस्ताव पास करा लिया कि सूर्य नहीं है जैसे, तमाम राजनैतिक व धार्मिक नास्तिक लोग कहते हैं कि यह ईश्वर है ही नहीं। कभी- कभी आपको भी लगता होगा कि पता नहीं कि ईश्वर है भी  या नहीं? यह भी एक झंझट ही है।  इसलिए बहुत से लोग ज्यादा इस पचड़े में नहीं पड़ते।  फिर भी हम लोग पता नहीं तुम्हें इस पचड़े में क्यों फँसाते हैं? जैसे नशेड़ी नशे की आदत डलवाता है ऐसे ही हम लोग तुम्हें बिना मतलब के इस पचड़े में डाले हुए।
मैं झूठ नहीं बोलता,  कभी-कभी लगता है कि तुम्हें इस पचड़े में न डालूँ । तुम से कह दूं कि जाओ आराम से पति की सेवा करो, घर का काम करो, बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ, देश का ख्याल करो। बाकी संत भी आपको इस पचड़े में कम डाल रहे हैं। वे सीधा-सीधा आपके काम की बात करते हैं, देश की बात करते हैं। और हम आपको पचड़े में डाले हुए हैं। क्यों पचड़ा कहते हैं? क्योंकि इसका लाभ तुम्हें अभी समझ ही नहीं आता । और हमें क्या लगता है? कि सब लाभ हो जाएं पर इस लाभ के बिना कोई लाभ लाभ नहीं है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

     क्या इससे बड़ा कोई लाभ है? या ऐसा कोई लाभ जो हानि में न बदल जाए? ऐसा कोई लाभ बताओ जिसमें हानि ना हो?  पुत्र हुआ तो क्या हानि नहीं होनी?  कुछ सुख मिला तो क्या वह जाएगा नहीं? सब जाता है। नहीं जाने वाला कोई तत्व है तो वही एक है और तो सब मात्र प्रतीति हैं। वे रहें तो क्या, ना रहें तो क्या ? दिखें तो क्या, ना दिखें तो क्या?  क्या फर्क पड़ता है इनके होने, ना होने का।

इसलिए वेदांत सुनने के पहले विवेक और वैराग्य जरूरी हैं और इसके साथ ही शरीर रहते थोड़ा कष्ट सहने के लिए तैयार होना, थोड़ा संयम रखना, प्रारब्धवशात् कष्ट आएंगे। शरीर है तो कष्ट आएंगे। हमें भी कष्ट हुए हैं। यदि यह समझें कि कष्ट नहीं होना चाहिए, हम तो परमात्मा के रास्ते पर चल रहे हैं तो ज्ञान निष्ठा में फिर पक्के नहीं हो पाओगे। इसलिए  यदि कष्ट आएं तो उन्हें झेलो। दुःख मिला, दुःख मालूम पड़ा लेकिन दुःख से हमारे अपने मोक्ष के प्रति भय नहीं होना चाहिए।


यस्य प्रसादत् पतित स्वपावनः भवनति संसार सुतारण शिवाः।
मंण्डलेश्वराणाम् परमेश्वरं हरिम् श्री परमानन्द प्रभुं ईशमाश्रये।।
           जिनकी कृपा को पाकर अत्यन्त पतित प्राणी भी परम पवित्र होकर संसार को तारने की सामर्थ वाले और कल्याणकारी बन जाते हैं मंण्डलेश्वरों के भी ईश्वर उन प्रभु श्री परमानन्द जी महाराज को मैं चरण शरण ग्रहण करता हूँ। ….शिवहरे

“वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकरूपिणम् ।”
गुरु क्या हैं ?  गुरु बोध रूप हैं, चैतन्य रूप हैं, आत्म रूप हैं और साक्षी रूप हैं। गुरु साक्षी हैं। आपकी बुद्धि में जो साक्षी है, वह गुरु ही हैं। वे आपके भीतर बैठे हैं और आपको जान रहे हैं। आपके संकल्प को, आपकी वृत्ति को, आपकी चंचलता को, आपकी स्थिरता को परमात्मा जान रहे हैं। गुरु जान रहे हैं। परमात्मा आपके ह्दय में विराजमान हैं। वे आपके मन की एक – एक सैकण्ड की गति – विधि को जान रहे हैं। वे आपके सुमिरन को और श्वास की प्रक्रिया को भी जान रहे हैं। गुरु आपके भीतर विराजमान हैं। जिस दिन आप यह स्वीकार कर लेगें कि बाहर के इष्ट गुरु, बाहर के इष्ट परमात्मा आपके मन को जानने वाले हैं; आपकी बुद्धि के साक्षी हैं; आपके मन के प्रत्येक संकल्प को जानते हैं; उसी दिन आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे ही गुरु तुम्हारे भीतर हैं। उनसे कुछ छिपा नहीं है। वो जो स्वयं ब्रह्म होकर इस ब्रह्मांड में विराजमान हैं और वैसा ही जो तुम्हें बनाने आये हैं जो तुम अपने को सिर्फ अमुक शरीर ही समझे बैठे हो।

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

मोह ये है के आप दृष्टा हो और अपने को दृष्टा नही मानते, देह मानते हो।  जिंदा हो, और मरा मानते हो सपने में! अभी जागृत की नहीं कहते। सपने में जिंदा होते हुए गर्दन काट दी किसी ने तो आप मर गए। तो दुखी कौन है? जिस ने मार दिया वह तो खुश है, तुम दुखी हो! और दुखी क्यों हो? तुम असल में देह मानते हो और गर्दन कट गई इसलिए तुम स्वीकार कर लेते हो, स्वप्न में! जागृत की तो अभी मैं छोड़ देता हूं। चूंकि  तुम देह अपने को मानते हो इसलिए स्वप्न में  गर्दन काट दी।  तुम चेतन उस समय भी हो! सपने में तो हो ना? जागृत की मौत की छोड़ दो। स्वप्न की मृत्यु में तुम चेतन हो। पर क्योंकि तुम देह को मैं मानते हो इसको बोलते हैं देहाध्यास। दर्द होने लगे इसका नाम देहाध्यास नहीं है। ‘देह हूं’ यह विचार देहाध्यास है और ‘देह हूं’ इस विचार के कारण जो मौत हुई है उस देहाध्यास के कारण तुम सोचने  लग गए कि मैं मर गया हूं। अंधेर है!! मैं सोचने लग गया कि मैं मर गया हूं! दुखी भी होने लगा और जिंदा भी हूं !! तो जागृत में भी क्या होगा? जब प्राणांत होने लगेगा तो तुम्हारे अंदर विचार आएगा कि मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ! मैं मर रहा हूँ ! अब कोई क्रिया होगी, प्राण निकलने लगेगा, कुछ होगा तो आपको लगेगा कि मैं मर रहा हूं। जबकि आप जान रहे हो! इसलिए कई ने ध्यान का अभ्यास भी बताया है। जब प्राणांत हो, नाड़ी छूटने लगे तो उसके भी दृष्टा रहो! हो तो दृष्टा ही, पर मानते नहीं हो! ‘मर रहा हूं’ का विचार पकड़ लेता है, मर रहा हूं का ख्याल पकड़ता है। मैं मृत्यु हो रही है उसको देख रहा हूं, प्राण सिकुड़ रहा है मै देख रहा हूं, प्राणों के उत्क्रमण को मैं देख रहा हूं, प्राण निकल गया!
तो…. प्राणों को लिए हुए मैं जिंदा ही तो हूं!! देहांतर जाकर प्राप्त होगा पर तुम सोच ना पाओगे कि मैं निकल रहा हूं! देर छूट गया पर मैं बच गया! नहीं सोच पाओगे, घबरा जाओगे! मरने के नाम से ही चिंता हो जाती है। इसलिए पहला अभ्यास दृष्टा होने का है। बैठे में भी द्रष्टा रहो, लेटे में भी दृष्टा रहो और नींद के पहले भी देह के दृष्टा रहते सो जाओ। यह एक अभ्यास है।
दूसरा अभ्यास इससे  ज्यादा जोरदार है। अब नींद आ रही है उसके भी साक्षी रहो। आलस्य आ रहा है उसके भी साक्षी रहो। कभी-कभी ड्राइवर जो गाड़ी चलाते हैं उनकी एकाग्रता बहुत होती है। कभी-कभी वह सो भी लेते हैं एक-दो सेकंड को। अच्छा खुला रास्ता मिल जाता है और आलस्य बहुत है तो एक दो  सेकंड को भी सो लेते हैं। माने वह अपने आलस्य को जानता है, आंखें बंद करता है सावधानी से और फिर सावधान हो जाता है। तो जहां बुद्धि सो जाती है तो ‘नींद आ गई और नींद चली गई’ यह जरूर जानना चाहिए। नींद के आ जाने का और नींद के चले जाने का! अब यह दो बातें हैं- एक है चिदाभास और एक है चेतन। चेतन का आभास और चेतन! चिदाभास जाता है तो उसको चेतना भी कह सकते हैं। चेतना जगती है, चेतना सोती है। चेतना को हिंदी में भी और अंग्रेजी में भी कॉन्शसनेस, सबकॉन्शसनेस, अनकॉन्शसनेस कहते हैं। तो ‘अनकॉन्शसनेस होती है’ का प्रमाण क्या है? नींद होती है, इतनी देर होश नहीं रहा, इसमें सबूत कौन हैं? क्या बेहोशी का सबूत बेहोशी हो सकती है? उस बेहोशी का सबूत भी चेतन ही है!