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ब्रह्म होना ही असल में मरना है

बुलबुले अलग-अलग हैं और पानी हैं। हैं तो दोनों बातें बड़ी स्पष्ट; लेकिन, जिनको वे स्पष्ट हैं, उन्हीं को स्पष्ट हैं। ये बातें तो समझ में आ जाती हैं कि बुलबुले पानी हैं। सर्वत्र हम ही हैं, यह बात युक्ति से, दृस्टान्त से तो समझ में आ जाती है; लेकिन, हम ही सर्वत्र हैं, यह समझ में नहीं आता। सर्वत्र आत्मानुभूति नहीं होती कि सबका सब “मैं” हूं। ऐसा दिख जाए , तो फिर द्वैष कहां, ईर्ष्या कहां और दुर्व्यवहार कहां? ऐसा दिखते ही दिल में शांति आवेगी। बुद्धि के धर्म शांत हो जाएंगे। जब आत्मबोध जागता है, तो प्रज्ञा ही ब्रह्म रूप हो जाती हैं। जब मन की ब्रह्म हो जाएगा, तब मति के धर्म, राग – द्वेष कहां रहेंगे? जब ब्राह्मीभूत हो जाएगा, तो मन में क्रोध कैसे रहेगा? जब ओला पिघल गया, तो उसकी कठोरता का दोष कैसे रहेगा? मन रहे, तो मन का धर्म भी रहे। ब्रह्मबोधाग्नि में मन पिघल जाएगा —-
“मन्सूर चढ़ा जब सूली पर,
तब रूह कफस से जाती थी।
मैं बंदा नहीं अनलहक हूं ,
आवाज खून से आती थी।।”
ऐसी कहावत है। यह कहावत कहां तक सच है, पता नहीं। लेकिन, भाव यह है कि यदि हमारा रोम भी छेद कर देखा जाए, यदि हमारा खून भी देखा जाए, तो वहां सिवाय “हूं” के और कुछ न मिले। वह स्त्री नहीं , पुरुष नहीं; गरीबी नहीं, अमीरी नहीं। हमारे खून में गरीबी का अनुभव न हो। हमारा खून भी ब्रह्म हो, हमारा मन भी ब्रह्म हो। हमारी इन्द्रियां भी ब्रह्म हों। एकदम शांत हों। ब्रह्म और कुछ नहीं। जिसकी इतनी निश्चित दशा होती है, क्या वह कभी मर सकता है? वे तो शांत रहकर बलिदान हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि जरा – सी द्वेष भावना हुई कि खून गरम हो गया।

एक चैतन्य

मैं ही एक चैतन्य हूं!! अनेक चेतन है ही नहीं, अनेक तो चिदाभास है!!
अंतः करण के कारण अनेक चेतन लगते हैं। मैं अलग, तुम अलग। सपने में भी अलग अलग थे ना? जगने में पत्नी मिली सपने वाली? गैया मिली सपने वाली? मकान मिले सपने वाले? नहीं! दुश्मन, सांप जिससे डरते थे, जागने पर मिले क्या? नहीं ना? ऐसे ही  एक चैतन्य दृष्टा है और मैं ही सर्व का दृष्टा हूं ,सब मुझ में ही है, सब मुझमें है ,सब में मैं हूं, यह सब तो सपना है, एक आत्मा ही सत्य है और सर्वव्यापक है, सर्वसाक्षी है ऐसा अनुभव करो!

देखो, गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन की पीठ थपथपाई, श्रेष्ठ कहा, आर्य कहा, कुलश्रेष्ठ, पांडव, धनंजय, हे मित्र, पुरुषोत्तम, नरोत्तम आदि शब्दों से संबोधित करके प्रोत्साहित किया। फिर भी ज्ञान दिए बिना काम नहीं चला। इसका मतलब यह नहीं कि फिर पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं है। पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ नहीं थपथ पाओगे तो तुम पीठ देकर चले जाओगे। तुम गुरु को भी पीठ दे जाओगे, तीर्थों में भी आना बंद कर दोगे। किसी पण्डा से दुःखी होकर कान पकड़ लोगे कि अब हम कभी नहीं आएंगे। इसलिए आप की दुर्बलता को देखते हुए आपकी पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ थपथपाने से शायद आगे का कदम बढ़ जाए। थपथ पाने में रुकना मत।

इतनी प्रशंसा करके भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। इतने चमत्कार दिखा कर भी ज्ञान दे रहे हैं। कहीं तुम्हारा विश्वास डगमगा न जाए इसलिए चमत्कार दिखाए, प्यार दिया। युद्ध में तुम्हारे साथ खड़े हो गये। तुम जो चाहते हो तुम्हारी इच्छाओं के साथ भगवान खड़े हो गए लेकिन तुम अभी उनकी इच्छा के साथ खड़े नहीं हो।इसलिए भगवान कहते हैं –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
( जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।)

अर्जुन भगवान को एक जगह खड़ा देखेगा कि सर्वत्र? ये इंद्रियाँ तो एक ही जगह देखेंगी, इंद्रियाँ सब जगह कैसे देखेंगी? क्योंकि ये रूप को देखती हैं। रूप व्यापक नहीं है। जिसको घड़ा देखते हो तुम उसको सकोरा कैसे कहोगे? क्या मति मारी गई है जो आप घड़े को सकोरा कहोगे? कोई ऐसा है मंदबुद्धि जो ईंटा को घड़ा कहे? उसके अलग-अलग नाम हैं। यहाँ घड़े हैं, व्यापक कैसे कहे अर्जुन?
ये एक जगह जो खड़े हैं वो सब जगह हैं। ये एक जगह जो घड़े के रूप में हैं वो अनेक रूपों में हैं। अनेक रूप रूपाय….. क्या उनको अनेक रुप होना है। क्या कोई अभिनेता हैं जो कि थोड़ी देर पहले कुछ बने थे, फिर कुछ बने। असल में, उनका स्वरूप ही ऐसा है कि सब रूप वही हैं। होना ही नहीं उनको। अनेक रुप रूपाय, उनका रूप क्या है, जो सब रूप हो वही उनका रूप है। जो सर्व रूप नहीं है वह भगवान नहीं हो सकता। तुम्हारी शुरुआत एक रूप से शुरू होगी। इसलिए तुम कृष्ण भगवान से शुरू करो, गुरु भगवान से शुरू करो पर गुरु भगवान का काम, कृष्ण भगवान का काम तब होगा जब भगवान सब रूपों में दिख जाए। तुमने कभी भगवान को सब रूपों में देख पाया है या नहीं? एक वही मिट्टी घड़े के रूप में, वही मिट्टी ईंट के रूप में, वही सकोरे के रूप में है कि नहीं? वही है ना? इसे तो तुम देख पा रहे हो, यह तो उदाहरण है पर हम वह दिखाना चाहते हैं जो एक ही है। चाहे उसका नाम मैं हो, चाहे आत्मा हो, चाहे ब्रह्म हो उसको देखो। विश्वास ही न करो। वैसे तो बिना विश्वास के तुम्हारे कदम ही नहीं उठेंगे इसलिए कहा है बिनु विश्वास न कौनो सिद्धि। और सिद्धि तो छोड़ो बिना विश्वास के ज्ञान सिद्धि भी नहीं हो सकता। इसलिए विश्वास से चलो और अंत में अपरोक्ष देखो। उसको देखो जो सर्व रूप है। इसलिए भगवान एक रूप में खड़े होकर तुम्हारे अंदर योग्यता लाकर, प्यार देकर, चमत्कार दिखाकर, दिखाएंगे अनेक रूप। अनेक रूप रुपाय विष्णवे प्रभ विष्णवे सच्चिदानंद रूपाय देवाय परमात्मने नामः।

चित्त मदिरा पे रखोगे, तो बहक जाऔगे,
चित्त चाँद पे रखोगे, तो शीतलता पाऔगे,
चित्त चैतन्य पे रखोगे, तो आनुभूति पाऔगे,

लेकिन…
चित्त “गुरुचरण” पे रखोगे तो लाख चौरासी से बच जाओगे।
“सतगुरु” के लिये खर्च की हुई कोई भी चीज, कभी व्यर्थ नहीं जाती।
चाहे वो साँसें हो चाहे वक्त।

चिंतन का विषय

एक बहुत बड़े चिंतक थे, वे यह कहते थे, ‘ईश्वर ने मनुष्य नहीं बनाया मनुष्य ने ईश्वर बनाया’। हो सकता है जिन ईश्वरों को बनाया है तुम लोगों ने, बना लिए हैं पूजा के लिए, वह ईश्वर नहीं है! ईश्वर है ही वह जिससे दुनिया हुई है। हम नाम नहीं लेते उसका, इस्लाम भी उसका नाम नहीं लेता, अल्लाह कहता है, खुदा कहता है। हम ईश्वर उसे कहते हैं जिससे दुनिया पैदा हुई है। वह ईश्वर है जिसको मनुष्य ने पैदा किया है। वह मंदिर हो सकता है, वह मूर्ति हो सकती है, पूजा पद्धति हो सकती है, ईश्वर को किसी ने पैदा नहीं किया, ईश्वर ही है जिसमें दुनिया पैदा हुई है और ईश्वर से आज भी पैदा होती है। और फिर बता दें, हम अपने वेद के मंत्र बताते हैं, हम बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – – 
यतो वा इमानि भूतानि जायंते 
जिससे यह सारी सृष्टि पैदा हुई है, येन जातानि जिसके द्वारा यह पैदा की गई है, जीवंति अर्थात जिसमें यह जीवित रहती है उसे ब्रह्म कहते हैं। उसे जानो जिससे सृष्टि पैदा हुई है, जिसमें रहती है और जिसमें अंत में लीन हो जाती है! उसको ईश्वर कहते हैं।
कोई व्यक्ति ईश्वर क्यों नहीं है? क्योंकि यह हो सकता है कि दो- एक बच्चों को पैदा कर भी दे…… यहां बहुत लोग हैं माता-पिता जिन्होंने पैदा किया है लेकिन नौ महीने मां के भरोसे था। थोड़े दिन तक दूध पीकर जिया नहीं तो मर जाता। लेकिन अब माँ- बाप मर गए और वह जिंदा है। ज्यादातर सबके मां-बाप, बाबा मर गए लेकिन बेटे हैं, नाती हैं। भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। 

भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। यह गलतफहमी है कि पैदा करते दिखाई नहीं देता। जो लोग बिना समझे ईश्वर की बात करते हैं उनका में खंडन भी करता हूं। राम ही लोग खिलौना माना ईश्वर कोई तुम्हारा खिलौना है? जैसे बच्चे खेल लेते हैं, कुछ  बना लेते हैं ऐसे ही तुमने ईश्वर मान लिया और जब मन का नहीं हुआ तो फेंक दिया। यह ऐसी कहानी है कि समय लूंगा तो बढ़ जाएगी। आप ठाकुर जी को मानते हो पर नाराज हो जाओ तो फेंक देते हो। एक यादव जी थे उनकी भैंसे खो गई। बहुत मनाया ठाकुर जी को पर नहीं माने तो ठाकुर जी को तालाब में फेंक दिया। मैं यह नहीं कहता कि पूजा ना करो करो पर यह हमारे स्वीकार किए हुए भगवान हैं। यह उनके स्वीकार किए थे, नाराज हो गए तो फेंक दिए। और संयोग की बात यह हुई कि उसकी  भैंस आ गई। अब कहने लगा तालाब में से डुबकी लगाकर ढूंढ के लाऊं ठाकुर जी को। तो कहता है ठाकुर जी को कि पहले ही ढूंढ देते तो यह दुर्दशा ना होती! तो तुम तो ऐसे भगवान मानते हो! गुरु को भी ऐसे ही मानते हो! आज मानते हो कल नाराज हो जाओगे। कईयों ने बंद कर दिया गुरु के पास जाना। तो… गुरु को तो मानते हो पर गुरु का खंडन कैसे करोगे? 

ईश्वर से गुरु में अधिक धारे भक्ति सुजान। बिन गुरु भक्ति प्रवीणहूं लहे न आतमज्ञान॥

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

सबसे बड़ा पाप


माताएं जब बच्चों को चलना सिखाती हैं, तो जैसे ही वह पास आएगा, मां थोड़ा पीछे हटेगी, फिर थोड़ा और पीछे हटेगी। महात्माओं को भी तुम्हारी प्रवृत्ति को धीरे – धीरे जगाना पड़ता है। यह न समझना कि हम तुम्हें धोखा देने के लिए कह रहे हैं; बल्कि, हम तुम्हारे हित के लिए कह रहे हैं। इसीलिए, अपने प्रमत्त मन से कह देना कि पन्द्रह दिन के लिए प्रमाद न करे। हजार काम छोड़ो; लेकिन, सत्संग मत छोड़ो; क्योंकि, यही अपना काम है।
कई लोगों की इतनी जटिल परिस्थितियां हैं, जिनके कारण वे विवश होकर नहीं आ पाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मुझे भी दुख होता है। उनके लिए मैं यही कहूंगा कि न आ सकें, तो कोई बात नहीं; लेकिन यह देखना कि मन प्रमाद से और चालाकी से कहीं ऐसा न कर रहा हो कि अब क्या करेंगे, दूर पड़ता है, तांगे में पैसे लगते हैं। इस प्रमाद से घूमाव- फिराव न करे, बाकी किसी कारण से न आ सको, तो कोई बात नहीं।
देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित नहीं
संसार के सब नुकसान सहे जा सकते हैं; लेकिन, आत्मा का अकल्याण नहीं सहा जा सकता। मकान के गिरने से शरीर का गिरना ज्यादा बुरा है। जो आदमी अपने अकल्याण को सह रहा है; वह आत्म -हत्यारा है। दुनियां में सब की हत्या कर लेना बुरा नहीं है; परंतु अपनी हत्या सबसे बड़ी हत्या है। इसीलिए, आत्महत्या करने वाले का उद्धार हमारे ऋषियों ने भी नहीं बताया। सब पापों का मोक्ष है; लेकिन, आत्महत्या का प्रायश्चित नहीं। आत्महत्या से मेरा मतलब है, जो अपने आप को अभिमानी समझे। जो देहाभिमान में जकड़कर अपने आप को मरने वाला मानता है, वह तो मुक्त हो ही नहीं सकता। अतः, शरीर का अभिमान ही छोड़ो और कोई रास्ता नहीं है।
कुपथ्य कर- कर दवा खाना वैसा ही है, जैसे चोरी करके पुलिस को ₹10 चढ़ा देना। मधुमेह में शक्कर भी खा लो और गोली भी। यह तो हो गया बराबर; लेकिन, देहाभिमानी का कोई प्रायश्चित्त नहीं। इसका एक ही तरीका है कि देहाभिमान को छोड़कर आत्मा को देखो–

“देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ,
यत्र-यत्र मनोयाति तत्र-तत्र समाधया:।”


देहाभिमान गल जाता है, तब परमात्मा का बोध होता है। जिस आदमी की चेतना परम ब्रह्म परमात्मा में लीन होती है; परमात्मा भाव को प्राप्त होती है; वही आदमी अजर, अमर और परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है। चाहे कोई भी हो, सबको सत्संग की जरूरत पड़ेगी; आज नहीं तो कल पड़ेगी। इसलिए, सबको सत्संग करना चाहिए।

इस विषय पर विस्तार करते हुए गुरुदेव हरदम ये लाइन दोहराते है …

देह को मैं मानना, सबसे बड़ा ये पाप है

सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पुत्र का ये बाप है

आत्मानुभव के अवयव

तुम्हें भी पूरा शान्त होना पड़ेगा। यह बहुत बड़ा तप है। चुप हो जाने, शान्त हो जाने जैसा तप ब्रह्मांड में नहीं है। शीर्षासन लगाना, भूखों मरना, रात में जागना, अखंड रामायण पाठ करना, जपादि करना, यह सब थोड़े-थोड़े तप हैं। लेकिन, बिल्कुल मौन, शान्त हो जाना, बहुत बड़ा तप है। मन कहेगा बोलो और गुठली कहेगी कि उसे निकाल कर बाहर कर दो। किसान कहेगा, “हम तुम्हें और दबा कर रखेंगे, जबरदस्ती दबा कर रखेंगे”। कई-कई बीज तो शायद छ: महीने दबाकर रखने पड़ते होंगे। इसी प्रकार अपने मन को बिल्कुल शांत कर, मौन होना पड़ेगा, न तन डोले, न मन। न मन बोले, न तन बोले, न आंख बोलें और न हाथ बोलें। सब मौन हो जाएं, सब शरीर मौन हो जाए। तन मौन हो, वाणी मोहन हो, बुद्धि शान्त हो; फिर देखो! वहां अंकुर आएगा। थोड़ी देर को ही कोई बिल्कुल शांत हो जाए, तो फौरन कोई अंदर पैदा हो जाएगा। चेतना तुरंत अंदर पैदा होगी; कहेगी “हूं” उस “हूं” को ही भगवान् कहते हैं। भगवान् अंदर से एकदम पैदा होते हैं। यदि नौ महीने का एकांत न पावे, तो संतान भी पैदा न हो। यदि कोई आदमी रोज – रोज ऑपरेशन करके देखता रहे, तो संतान को भी पैदा होने में मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए, प्रकृति ने बड़े अच्छे नियम बनाए हैं; नहीं तो आप थोड़े ही मांनते? लेकिन, प्रकृति गर्भाशय का दरवाजा ही बंद कर देती है, नहीं तो आदमी के मारे संतान पैदा ही न हो पाती। इसलिए मैं कहता हूं कि वह बहुत ही बहादुर आदमी है, जो अपनी आंखें, नाक, कान और इंन्द्रियां बंद करके अपने आप में बैठ जाता है। उसे आत्मानुभव हो जाता है।

सबके आधार तुम हो

इस आत्मा के अस्तित्व को जानो! अब दूसरा है, साधना! आसक्त किसमें हो? ‘मैं देह हूँ, देह बना रहे’, यह ममता हो चुकी। एक अच्छी अनुभूति हुई है वह बनी रहे, किसकी याद में सुख मिला वह अनुभूति टिकी रहे। किसी न किसी अनुभूति को टिकाने का आग्रह है। सभी अनुभूतियों का आग्रह छोड़ दो! तुम्हारा कभी अभाव होता नहीं है, हो सकता नहीं है! जो जो अनुभव किया है उनका अभाव होगा और कोई न कोई अभाव अनुभूति को पकड़ने का आग्रह बना रहता है। देह हूँ यह अनुभूति बनी रहे, यह मेरे है, मैं ऐसा हूं, यह ऐसा हो, ध्यान है, प्रकाश हो गया, ऐसा हो गया….. । माने कोई ना कोई जो अनुभव हुआ है, बनाए रखना चाहते हो। पर वेदांत क्या कहता है? जो अनुभव हुआ है वह  रहेगा नहीं। जिसके आश्रित सब हुआ है वह रहेगा कूटस्थ!
जिसके आश्रित सब बनते मीटते रहते हैं, होते रहते हैं वह अधिष्ठान है! इसलिए
ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!! जगत का आधार, अधिष्ठान उसको नमस्कार है!!! और जगत का आधार, अधिष्ठान है कौन? वह तू है! तत् त्वम् असि!! वह तू है! तू देह ही  नहीं है, तू मन ही नहीं है, तू ख्याल ही नहीं है, तू जागृत ही नहीं है, तू सुषुप्ति ही नहीं है, सब कुछ तू ही है!!!! सब कुछ है तू, पर उस सब कुछ में परिवर्तन, जीना, मरना होता रहेगा। तो तू ही तो है!!
सत् असत् चाहमर्जुन! गीता की घोषणा देखो- “सत् भी मैं हूं, असत् भी! अर्जुन मै सत् और असत् दोनों हूं!” और बता दूं – सत् असत् न  उच्यते   उसे ना सत्  कह सकते हो ना असत् कह सकते हो। ना सच कह सकते हो ना शून्य। तद् सत् तन्नासदुच्यते उसको ना हम सत् कह सकते हैं ना असत् कह सकते हैं। अनिर्वचनीय है!
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा  सह। जिसको वाणी से हम बता ही नहीं सकते, क्योंकि वाणी से बताओगे, पकड़े जाओगे! ऐसा कहोगे तो वैसा, वैसा कहोगे तो वैसा। इसलिए हम उसे बता नहीं सकते पर जानना बाकी भी नहीं रह गया। बाकी भी नहीं रह गया और बता भी नहीं सकते! इसलिए….. वाणी तो पानी भरे, चारों वेद मजूर हां! वाणी जहां पानी भरती है! पर फिर भी यहां तक पहुंचे कैसे? वाणी के सहारे! जैसे जिस रस्सी के सहारे उतरते गए, उतरते गए, अंत में पहुंचकर रस्सी भी छोड़ दी। तो वाणी के सहारे गए, वाणी भी वहां नहीं जाती इसलिए वहां वाणी की गम नहीं है, बताना संभव नहीं है फिर  भी बता दिया! ठीक है? इसे समझने की कोशिश सतत होनी चाहिए क्योंकि इसके अलावा बाकी कोशिशे व्यर्थ हैं। जानो, समझो और सोचो इस महामंत्र को….ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रे नमः!!

साक्षी के ध्यान को सीखो और शाश्वत हो जाओ


पहली साधना चेतना को रखो और कुछ नहीं! अनासक्त हो जाओ!
राग द्वेष वियुक्तैस्तु राग और द्वेष का त्याग कर दो। कोई आवे, कोई जावे, मैं एक चेतना का दीप जलाए बैठा हूं। चेतना का दीप! जब हम कोई ऑब्जेक्ट रखना चाहते हैं, विषय रखना चाहते हैं तो परेशानी पैदा कर लेते हैं। तो आप चेतना को रखो। अब आखरी बात खतरे की है, उसमें जरूर थोड़ी गहरी सोच चाहिए। यहां तक तो आप इमानदारी से चाहे तो अनुभव कर सकते हो। एक संकल्प करो कि आज हम ध्यान में किसी को लाने या हटाने का काम नहीं करेंगे! घर हटाना नहीं, मंत्र लाना नहीं, अच्छे को लाना नहीं बुरे को हटाना नहीं! तुम्हें क्या करना है? अच्छे बुरे का आग्रह छोड़ देना है और जागे रहना है।  ‘मैं जगा हूं’ यह ख्याल आया, अच्छा आ गया या बुरा आ गया दोनों ख्यालों में जगे रहो! पर आप का आग्रह जब किसी चीज का होगा तो उसके आने से जागा मानोगे जाने से सोया मानोगे। तो आग्रह छोड़ दो, बिल्कुल आग्रह छोड़ दो! आप का आग्रह है कि मैं जग रहा हूं, श्वास आई, नहीं आई, धीमी हो गई, ख्याल आया, नहीं आया,  मैं जागा हूं! तो यह मंत्र का मूल महामंत्र है! यह महामंत्र है कि मेरे सामने यह हुआ, यह हुआ, यह हुआ, मेरे सामने हुआ इसका मतलब मैं अध्यक्ष हूं! मेरी अध्यक्षता में सब हुआ! मेरी आंखों के सामने हुआ! इन आंखों के नहीं, मैं ही आंख हूँ! इसीलिए स+आखी= साखी, साक्षी, मैं आंख हूँ! मेरे सामने यह हुआ! मेरे सामने! मेरे सामने! मेरे सामने! ठीक है? आप आंख हो! इन आंखों से(चर्मचक्षनओं से) तो बहुत दिन देखा है अब यह आँख आप खोलो!  प्रमाद मत करो! आपको लगे, हां! मेरे ख्याल में यह आया! यदि आप चुनाव करोगे तो परेशान हो जाओगे। इसीलिए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं ‘चॉइसलेस अवेयरनेस’ चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, ठीक है? अब चुनाव ना करो, जागो!

आप चुनाव ना करो! जागो! चुनाव के बिना जागो! अभी चुनाव हो गया है, अाप चुनाव ना करो, जागो! आप चुनाव करते हो कि इसमें जगना है, इसमें नहीं जगना। यह मेरे ख्याल में नहीं आना चाहिए, यह मेरे ख्याल में आना चाहिए यह चुनाव कर लिया। पर चुनाव मत करो। चुनाव राजनीति में होता है, अध्यात्म में चुनाव नहीं होता। चुनाव छोड़ दो, चुनाव के पचड़े में मत पड़ो। आप तो जागना सीखो!  फिर देखो! कहोगे आज मेरा ध्यान नहीं लगा क्योंकि ध्यान में भी चुन लिया, इसका करूंगा! गुरुजी का किया तो घरवाली आ गई, चुनाव किया राम-राम का तो बीच में मंत्र दूसरा आ गया, चुनाव किया राम का कृष्ण आ गए। लोग यही तो शिकायत करते हैं। एक ने यही शिकायत की कि हमारा मन किसी इष्ट में पक्का नहीं बनता, कभी राम का करता हूं तो कभी कृष्ण, कभी कृष्ण का करता हूं तो शिवजी अच्छे लगते हैं, किसको बड़ा मानूं? इसी में पड़े हो? बड़े तो तुम हो!
एक चुटकुला सुना देता हूँ। किसी ने कहा जो ताकतवर होता है वह भगवान होता है। तो  उसने ताकतवर को भगवान मान लिया। अब क्या है कि उसने चूहा पाल रखा था। अब एक दिन बिल्ली झपटी तो चूहा भागा, नहीं तो वह खा लेती। तो चूहा भगवान नहीं है बिल्ली भगवान है! बिल्ली को खिलाने लगा, दूध पिलाने लगा, पालने लगा। तो एक दिन आया कुत्ता।  तो बिल्ली भागी। तो उसने सोचा बिल्ली भगवान नहीं, शक्तिमान भगवान होता है तो कुत्ता भगवान है। तो कुत्ता को पाल लिया। अब एक दिन घरवाली इधर उधर हो गई तो कुत्ता भाग गया रोटी पकड़कर। तो पत्नी ने मारा डंडा तो कुत्ता भों भों करता भागा। तो कहता है, लो! यही (पत्नी) भगवान है अब पत्नी हो गई भगवान! अब वह पत्नी को आरती पूजा करना करने लगा पर रोटी वही बनाती थी चाहे भगवान हो गई! अब बनाने में एक दिन नमक दाल कुछ गड़बड़ हो गई तो उसको डांट दिया और थप्पड़ भी मार दिया। उस समय होश नहीं रहा कि यह भगवान है। तुम्हारा भी भगवान ऐसा ही है, मन का ना हो तो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं। तो भगवान रिजेक्ट कर दिया। पत्नी को  कहता है वह ‘अभी तो मैं ही भगवान हूं’ क्योंकि ताकतवर वही निकला ना! क्योंकि अभी तक तो माने हुए थे पता नहीं कब खिसक जाए। किसको गुरुजी कहो, कहो कब लड़ पड़ो ! भगवान भी है और लढ़ भी पड़े और श्रद्धा भी चली गई क्योंकि तुमने माना है, चाहे जब रिजेक्ट कर दो! तो यह माने हुए भगवान है। इसलिए अब कुछ मत मानो। विपश्यना का सूत्र है- जागो, जो होता है होने दो, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो! रुको भी नहीं झुको भी नहीं! किसी को कुछ मत कहो, जागे रहो! पर अंतिम स्थिति सबसे कठिन है। कितना भी जागो, चाहे विपश्यना कर लो, चाहे कुछ भी कर लो, आखिरी सूत्र क्या है? कि  अवेयरनेस भी गई, सावधानी भी गई! किसी की तो जाती है! यह सजगता भी खो जाती है। चेतना भी नहीं रहती। क्यों? इच्छा द्वेष  सुखं दुखं संघातश्चेतना धृति यह प्रकृति के विकार है। यह वृत्ति है। जागे हैं, वृत्ति है। वृतिका तो लय होगा।  वृति कभी नहीं रहेगी। तो कोई नहीं बचा क्या? बुद्ध शून्य  कहते हैं, हम शून्य  नहीं कहते, हम चैतन्य कहते हैं।  वृत्ति के अभाव का बाद में भी ख्याल आए कि इतनी देर कोई ख्याल नहीं था, चैतन्यता भी नहीं रही थी, मुझे पता ही नहीं था कि उस समय मैं सो गया था या जागा था, मुढ़ावस्था थी कि क्या था? ध्यान करते करते ऐसी जगह कि जहां कुछ वर्णन नहीं कर सकते। पर वर्णन नहीं कर सकते उस अवस्था में था कौन? यह जगाना है। जहां आपका होश भी काम नहीं देता, जहां आप वर्णन भी नहीं कर सकते, क्या बताऊं!
तब भी थे तुम ही! अनात्माश्रयाहं न मुक्तिर्नमेय  मैं अनात्म अनुभवों का आश्रय हूं! सभी अनुभूतियां! कुछ भी हुई हो, मेरे बिना नहीं हुई। इसलिए हम आत्मवादी लोग हैं। बुद्ध शून्यवादी  है, कहते हैं वहां शून्य हैं। हम कहते हैं वहां आप है! इस आत्मा के अस्तित्व को जानो!

ज्ञान क्यों नहीं हो पाता


बोध क्यों नहीं हो पाता? इसलिए कि जिस चीज का बोध करना है, उससे संबंधित सजातीय परमाणु या अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए। क्योंकि, जिस विषय का बोध होगा-जिस दृश्य का बोध होता है- उसके सजातीय अंश देखने वाले हिस्से में कुछ-न-कुछ सूक्ष्म रूप में होना चाहिए।अन्यथा उस वस्तु को पकड़ा नहीं जा सकता। आप यह बात व्यवहारिक रुप से रेडियो में देखते हैं। जिस स्टेशन के शब्द पकड़ने होते हैं, वह हिस्सा रेडियो में भी होना अनिवार्य है। यदि , रेडियो में वह स्टेशन नहीं होता, तो उस स्टेशन के शब्द पकड़े नहीं जा सकते। अतः जिस चीज को हम पकड़ते हैं, उसका सूक्ष्म अंश हमारे अंदर भी होना चाहिए , नहीं तो वह चीज पकड़ी नहीं जा सकती।
यदि किसी चीज को देखना है, तो दृश्य में भले ही उतनी चेतना न हो; लेकिन ,दृश्य का हिस्सा (अंश ) दृष्टा में भी होना जरूरी है। इसीलिए, बिना दृश्य के लिए हुए दृष्टा सिद्ध नहीं होता। यदि शब्द ग्रहण करना हो, तो जिस चीज से शब्द की उत्पत्ति हुई है, उसका कुछ -न- कुछ हिस्सा कान में होना जरूरी है। इसीलिए, श्रोत्र इंद्रिय का निर्माण भी आकाश से हुआ है। उसी से शब्द ‌का भी निर्माण हुआ है। जिससे नेत्र इंद्रिय की उत्पत्ति हुई है, उसी से रूप की उत्पत्ति हुई है, रूप भी तेज का है और नेत्र इंद्रिय भी तेज की है। फिर आप कहेंगे दो क्यों हैं? इसीलिए कि एक देखे और एक दिखाई दे। इसका हम अभी स्पष्टीकरण करेंगे।

दृश्य द्रष्टा के विषय को स्पष्ट करने का मेरा विचार है। दृश्य और दृष्टा दोनों ही एक हैं। इसके समझने के लिए एक उदाहरण चुना है। जिस लकड़ी को जलाना होता है, उसको हम कहते हैं लकड़ी है घास है और जिससे जलाते हैं, उसे कहते हैं आग है। जिसे लकड़ी कहते हैं, उस लकड़ी में भी आग होती है; नहीं तो कोई भी आग से लकड़ी को नहीं जला पाता। यह वैज्ञानिक सत्य है कि यदि लकड़ी में आग अव्यक्त रूप में ना हो, तो कोई भी उसको नहीं जला सकता। अव्यक्त आग, जो लकड़ी में विद्यमान है, वह व्यक्त अग्नि के स्पर्श से व्यक्त हो जाती है और उस लकड़ी को जलाना शुरू कर देती है। अव्यक्त को व्यक्त होना चाहिए। चाहे वह लकड़ी के घर्षण द्वारा हो या जली आग के द्वारा हो या अपने आप घर्षणों से हो। कई बार दो लकड़ियां आपस में रगड़ती रहती हैं और उनमें आग प्रकट हो जाती है। अप्रकट अग्नि, जब प्रकट होती है, तो जलाना शुरु कर देती है।
आप जिससे वस्तु को जलाते हैं, उसको कहते हैं आग और जिसको जलाते हैं, उसको कहते हैं ईंधन, लकड़ी, कोयला आदि। लेकिन,जिसको आप आग कहते हैं,करता उसमें लकड़ी बिल्कुल भी नहीं है? क्या ऐसी आग आपने जिन्दगी में देखी है, जिसमें लकड़ी बिल्कुल न हो? दाहक आग लकड़ी का वह हिस्सा है, जो अग्नि के अधिकार में आ चुका है।जो दग्ध हो चुका है, उसमें स्थूलता तो काफी अंशो में विनष्ट हो गई है; लेकिन, फिर भी उसके अंदर लकड़ी के अवयव हैं, जो अग्नि रूप में हो गए हैं । उसको हम आग कहने लग गए हैं जो लकड़ी का हरूप में दिखती है उसे हम इंधन कहते हैं।
दृष्टा किसे कहते हैं? प्रकृति का जो हिस्सा चैतन्य से एकीभूत हो चुका है; जिस पर चेतन्य ने अपना अधिकार पा लिया है; जो चैतन्य का रूप हो सकता है; चैतन्य की चैतन्यता जिसमें प्रतिबिंबित हो गई है; विशेष हो गई है; वह दृष्टा है। मान लो आप कह दें कि दोनों ही लकड़ियां हैं। एक लकड़ी, दूसरी लकड़ी को जलाती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि अग्नि की कोई शक्ति में होती, तो लकड़ी को लकड़ी नहीं जला सकती। इसीलिए, अग्नि तो दोनों लकड़ियों में व्याप्त है- एक में प्रकट रूप में है, दूसरी में अप्रकट रूप में। जिसमें प्रकट रूप में अग्नि है, उसे दृष्टा, दग्धा और जलाने वाली अग्नि कहते हैं। जिसमें अग्नि अप्रकट है, उसे ईंधन कहते हैं।