Posts tagged chetan

कर्म-धर्म

हमने इधर जाने का कभी प्रयास नहीं किया। वे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो अंतरात्मा में जाने का प्रयास करेंगे। इन दो बातों पर हमें बराबर विचार करना है कि गृहस्थों के लिए भी कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। उस कर्म का भले ही हो, जिसकी लोग कल्पना करते हैं। पर मुझे लगता है कि वैसे कर्म का और मोक्ष का कोई विरोध नहीं है। यदि कर्म का विरोध होगा, तो रोटी का भी होगा; रोटी का होगा, तो शरीर का भी होगा। लेकिन , शरीर विरोधी नहीं है, बल्कि साधन है। जब शरीर मोक्ष पाने का साधन है, तो फिर भोजन भी साधन ही है। अगर भोजन साधन है, तो फिर रुपया भी साधन है। रुपया साधन है , तो फिर कामना भी साधन है। जब कामना भी साधन है, तो फिर कर्म कैसे मोक्ष का असाधन होगा? कर्म मोक्ष में सहयोगी है; मोक्ष का बाधक नहीं है।
जो लोग कर्म से दूर भागना चाहते हैं, उन लोगों को मोक्ष तो क्या, रोटी भी नहीं मिलेगी। तुम लोग अगर दुकान बंद कर दो, तो मोक्ष तो दूर रहा, रोटी भी मिलनी मुश्किल हो जाएगी और अगर मिलती भी है, तो किसी कर्म के बल पर ही मिलेगी। मान लो एक सन्यासी बिना कुछ किए खाता है। मैंने सुना है कि कई लोगों के मत में हल जोतने में कीड़े मर जाते हैं– हिंसा होती है। इसलिए हिंसा वाला काम नहीं करना चाहिए । अगर हल न जोतें, तो हम भी मर जाएंगे और उपदेशक भी मर जाएंगे। फिर न हम रहेंगे, न हमारा धर्म और न हिंसा ही रह जाएगी। सारा ही खेल खत्म हो जाएगा। इसीलिए, इस हिंसा के बल पर तो बहुत कुछ खड़ा हुआ है। हल जोतने में हिंसा होती है, इसको हम हिंसा में नहीं ले सकते।
यह तो शरीर का और प्रकृति का नियम है, इसको हम इंकार नहीं कर सकते। यदि शरीर है, तो हम रोटी को इंकार नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि एक भाई हल जोतता है तो दूसरा दुकान करता है। बहुत सारे भाई हल जोतते हैं और दुकान भी करते हैं। एक भाई अगर सन्यासी हो जाए और संसार को ज्ञान दे, वह अलग बात है। लेकिन, अगर सारे भाई सन्यासी हो जाएं, हल जोतना छोड़ दे, तो सन्यासी भी मर जाएंगे और गृहस्थ भी मर जाएंगे। इसीलिए, सन्यास का मतलब यह है कि ऐसा व्यक्ति सन्यासी हो, जो तमाम संसार को संन्यासी बनाने का तरीका बताएं। गृहस्थ को संन्यासी बनाए, उसे संन्यासी की तरह जीना सिखाये। क्योंकि जो गृहस्थ होकर भी उसमें फंसता नहीं सिर्फ अपना कर्म करता है वो सन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि शरीर है, जीवन है तोह कर्म तो करना ही होगा, उदाहरण: जैसे पेट है तो खाना तो होगा। खाना सामने है तो हाथ से उठा के मुँह में भी डालना होगा। बिना कर्म किये बिना रह नही सकते, शरीर नही रख सकते और शरीर है तो इसे रखना भी होगा जब तक है स्वस्थ रखना होगा यही धर्म है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं ——
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं,कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।”

विवेक चूड़ामणि

“विवेक चूड़ामणि” पढ़ाते समय हमने कहा था कि इसे विवेक चूड़ामणि क्यों बोलते हैं?  इसका मतलब विवेक ऐसा भी होता होगा जैसे कहें कि यह आदमियों का सिरमौर है। इसका मतलब कुछ आदमी नीचे लेवल के भी हैं। ऐसे ही किसी को कहें कि यह चोटी का विद्वान है। इसका मतलब सबसे ऊंचा है। तो विवेक भी ऊंँचा नीचा होता है। क्या खाना, क्या नहीं खाना? यह भी विवेक है। क्या पाप है और क्या पुण्य है; यह भी विवेक है।  मैं क्या हूँ और जगत क्या है? दृश्य क्या है और द्रष्टा क्या है; यह भी विवेक है। जड़-चेतन, आत्मा-अनात्मा, यह भी विवेक है; पर विवेक चूड़ामणि नहीं है।  तो फिर वास्तविक विवेक क्या है? वास्तविक विवेक यह है कि सब कल्पित हैं। द्वैत ही वास्तविक नहीं है।  इसलिए जहाँ आप हो वहाँ विवेक होना चाहिए।
           “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।”
जहाँ तुम किसी से मिल गए हो, उसे पहले अलग करो। अलग कैसे करें?  विवेक के द्वारा कि मैं देह नहीं हूँ, मैं इंद्रियाँ नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ, अहंकार आदि भी नहीं हूँ। तो फिर क्या हो? मेरे सिवा कुछ नहीं। “मायातिरिक्तं  यद् यद् वा तद् तद् मिथ्येत निश्चन्।”

गुणों के पार – मुक्त

पुज्य गुरूदेव बताते हैं, मुक्त कौन होगा ? जो गुणों से पार हो जाएगा।

गुण तीन प्रकार के हैं:

तमोगुण; मतलब आलस्य निद्रा। इस गुण में रहेंगे तो मरने के बाद अन्य योनियों में जाओगे। जैसे पक्षी, जानवर आदि।

रजोगुण; इस गुण में रहोगे तो मृत्यु के बाद भी मनुष्य योनी में ही आओगे।

सत्वगुण:बअगर इस दुनिया में सत्वगुणी रहोगे तो देवता बन जाओगे।

पुज्य गुरूदेव बताते हैं कि तुम इन्हीं तीन गुणों में रहते हो। कभी जागृत कभी स्वप्न और कभी सुषुप्ति। इसको चक्र कहते हैं। उदाहरण से समझाते हैं, आपकी नाव पानी में चलती है। नाव में ही इस किनारे, फिर बीच में और आखिर में उस किनारे। नाव से तुम उतरे ही नही।
अपने को कैसे पहचाने कि हम तीन गुणों से बाहर गये।यह बहुत बडा रहस्य है। पुज्य गुरूदेव समझाते हैं—


जो जान जाएगा यह सब गुणों का काम है।मैं तो साक्षी हूँ। मेरा कोई आग्रह नही है।


जब सचमुच गहराई से दुख,चिन्ता, भय नही है। ऐसे ज्ञानी चुनाव रहित होते हैं। जो होता है,होने देते हैं।


जब अमर हैं तो धीर्घ आयु की जरूरत ही क्या है या मृत्यु का विरोध करोगे?


अगर खुद सुखस्वरूप हो तो सुख पाने की इच्छा करोगे। जब कमी ही नही है तो पूर्ति किसकी करोगे।


पुज्य गुरूदेव बताते हैं मुक्त वही है जो इन गुणों से पार हो जाएगा।ज्ञानी चुनाव छोड के गुणातीत होता है। जैसे सागर नदियों को बुलाता नहीं हैं अपने आप आ जाती हैं और मना भी नहीं करता है क्यों आ गये।सागर शान्त रहता है।उदाहरण से समझो—


जैसे नारियल में पहले सिर्फ पानी होता; फिर पानी और गिरी भी; और अन्त में खाली गिरी।कोश से चिपका नही।अलख होता है, बाहर नही।


जैसे ज्योति जल रही हैं। डक दी गई। बाहर वालों के लिए वह बुझी सी है, पर ज्योति से पूछो कि तुम जगी हो या सोई हो।

शिव कर कर सकते हैं तो तुम क्यों नहीं

प्राकृतिक जगत में आप देह हैं और मर जाते हैं। मानसिक जगत में भी लाभ-हानि आप अनुभव करते हैं, गरीब-अमीर होते हैं चाहे भौतिक जगत से हों पर होते मन में हैं। धन बाहर है पर अमीर कहाँ रहता है? दिमाग में। बड़े कहाँ होते हो? दिमाग में। देह बाहर है, मौत कहाँ होती है? मौत तुम्हारे मन में होती है। ये चेतना दृश्य से तादात्म्य करती है, वह भी पूरे दृश्य से नहीं सिर्फ एक दृश्य से तादात्म्य करती है। इसी का नाम जीव है। एक से तादात्म्य कर लेती है जैसे, जल में एक लहर से तादात्म्य कर लिया । एक लहर से तादात्म्य हुआ अर्थात् सागर लहर बन गया। “सागर सीप समाना जीव।” सागर लहर में समा गया। अब ये सागर लहर बन गया। तो लहर बने हुए सागर को अनेक दिखने लगते हैं।

इसी तरह जब ब्रह्म ही आत्मा, आत्मा ही जीव और देह बन गया या ऐसा मानने लगा तो सारी सृष्टि खड़ी हो गई। सब बखेड़ा हो गया। इसलिए लौटो, थोड़ी देर को जाओ। सदा भी नहीं रहोगे। जो जाता है वह लौट आता है। जिसका ध्यान लगता है वह छूट भी जाता है। भगवान शिव स्वरूप का स्मरण करते हैं। यद्यपि उनके परमात्मा श्री राम सृष्टि में है पर “संकर सहज सरूपु सम्हारा” शंकर भगवान ने अपने स्वरूप का स्मरण किया अर्थात् देह का नहीं किया, अपनी इंद्रियों का नहीं किया, अपने मन का नहीं किया। शंकर सहज स्वरूप सँभारा और हम को सँभारना भी पड़े स्वरूप को तो बड़ी मेहनत है। सहज है ही नहीं। उनको पता है इसलिए सहज सँभाल लिया।

अयमात्मा ब्रह्म (महावाक्य)

यदि तुम जागे रहो तो स्वप्न तुम पर हावी नहीं हो सकता। स्वप्न तब आएगा जब तुम इस देह को भूलकर तुम खुद स्वप्न बन जाओ। साँप तुम्हें तभी डसेगा जब तुम देह हो, चाहे जाग्रत के देह हो, चाहे स्वप्न के देह हो। यदि तुम देह नहीं हो और साँप डस भी जाए तो किसे डसेगा? क्या तुम्हें डसेगा? भौतिकवादी कहेगा कि साँप है और डस गया । अरे, जिसमें चेतना ही न हो और साँप डस गया तो किसे डस गया? जिस मकान में कोई रहता ही नहीं है, यदि वो टूट भी जाए तो कौन सा फर्क पड़ने वाला है? अर्थात् चेतना जब भौतिक देह में होगी तो भौतिक जगत है, स्वप्न में है तो स्वप्न जगत है और यदि आत्म देह में है तो ब्रह्म है। इसलिए जब तुम आत्मा में होगे, तब तुम्हें परमात्मा मिलेगा। जब तक तुम आत्मा नहीं हो, तुम्हें परमात्मा नहीं मिलेगा। क्योंकि परमात्मा का अंश- व्यष्टि और समष्टि दोनों ही हैं। व्यष्टि जगत समष्टि जगत, व्यष्टि स्वप्न समष्टि स्वप्न, व्यष्टि आत्मा समष्टि आत्मा, परमात्मा हो तो ब्रह्म मिल गया। अयमात्मा ब्रह्म। और भी बताऊँ- तुम जीव होगे तो ईश्वर मिलेगा? नहीं मन और तन होगे तो संसार ही मिलेगा।

जगत बना है हमसे

जो चेतन सब जगह भरपूर है, कहीं कम ज्यादा नहीं वह सिर्फ वहा मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है, बस यही जीवाध्यास है, यही बंधन है, यही समस्या है । तो…… सब जगह बराबर! और
एतावदेव जीज्ञास्यं तत्व जिज्ञासुनात्मना। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा।।

जो चेतन सर्वत्र है, सदा है, एक समान है और एक रस है ,जरा भी कम ज्यादा नहीं अब ऐसा चेतन हमको अपने में एक रस नहीं मालूम पड़ता। चेतन सर्वत्र तो मालूम ही नहीं पड़ता और जहा मालूम पड़ता है वहां भी एक रस मालूम नहीं पड़ता। जाग्रत में, स्वप्न में, सुषुप्ति में चेतन बदल जाता है ऐसा लगता है , जग जाता है, सो जाता है ऐसा लगता है। तो अभी आप आत्मा और ब्रह्म को जल्दी स्वीकार करें या ना करें पर ग्रंथ कहते हैं कि वह एक ही है , एक रस है, साक्षी हैं । करोड़ों नास्तिक स्वीकार नहीं करते इस बात को । तो जो स्वीकार नहीं करते वह नास्तिक और जो स्वीकार करते हुए नहीं मालूम पड़ता वे आस्तिक। स्वीकार तो करते हैं कि एक रस है, सर्वत्र हैं ,एक है। ना नहीं करते पर मालूम नहीं पड़ता। ऐसे ही हम पहले एक बात करेंगे कि जहां चेतन मालूम पड़ता है। चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता क्योंकि दो चीजें जानी गई-
यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा। तो अभी हम सर्वदा पर विचार करते हैं। सब जगह चेतन नहीं मालूम पड़ता यह तो मालूम पड़ता है पर (अपनी और हाथ दिखाते हुए )यदि यहां चेतन ना मालूम पड़ता तो समस्या ही कोई नहीं थी । यदि चेतनता आपको मालूम ही नहीं पड़ती की हूं तो दुख क्या था? बंधन क्या था ? चिंता क्या थी? चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता जहा देह, मन, बुद्धि है वहां मालूम पड़ता है। तो जब चेतन एक रस है तो कभी मालूम पड़ता है कभी मालूम नहीं पड़ता यही चक्कर है। एक रस, सदा, सर्वत्र तो छोड़ दिया। अब विचार करना है तत् पद और त्वं पद पर। तत् पद भी अभी छोड़ दें विचार करे त्वं पद। तुम या मैं। मैं भी एक समान चेतन हूं यह मालूम नहीं पड़ता। चेतन हो जाता हूं, जड़ हो जाता हूं, जग जाता हूं, सो जाता हूं ऐसा मालूम पड़ता है। हमारे गुरुदेव इसके विषय में क्या कहते थे! चेतन वहाँ मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं इसलिए कभी मालूम पड़ते हैं कभी नहीं। और जहां मन बुद्धि नहीं है वहाँ मालूम ही नहीं पड़ता। तो सर्वत्र नहीं मालूम पड़ने का कारण सब जगह मन बुद्धि का अभाव। और एक जगह भी एक समान मालूम नहीं पड़ता क्योंकि मालूम पड़ते हैं मन बुद्धि के कारण और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं। तो एक समान हम हैं ऐसा मालूम ही नहीं पड़ता।

नित्य दो हैं। परमात्मा नित्य है, जीव नित्य है और यह प्रवाह चलता रहता है। अर्थात् अगला जन्म और देह की प्राप्ति होती रहती है। यद्यपि बीच में छूटता भी है जैसे, जगने के बाद सोना और सोने के बाद जगना। यह जगना सोना खत्म नहीं हो रहा, चल रहा है। वैसे तो रोज खत्म होता है लेकिन फिर भी चल रहा है। खत्म होने का मतलब यह नहीं कि खत्म हो ही गया। खाना रोज खत्म करते हो कि नहीं? देखो, खाते-खाते खाना बंद कर देते हैं फिर भी एक अर्थ में बंद नहीं करते। अभी बंद कर दिया कुछ देर बाद फिर भूख लगी, फिर खा लिया। इसी तरह सृष्टि और शरीर की प्राप्ति भी होती रहती है। यह बंद नहीं होती। एक शरीर छूटा, दूसरा मिलेगा। दूसरा शरीर छूटा तीसरा मिलेगा।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
ये शब्द आदि शंकराचार्य ने कहे हैं । ये शब्द किसी वैष्णव के नहीं हैं। इसका मतलब, देह की मृत्यु को वह भी इंकार नहीं करते। हाँ, उपाय कर रहे हैं कि यह ना हो। नास्तिक लोग शरीर को ही मैं मानते हैं, जीव भाव को नहीं मानते, आगे जन्म नहीं मानते। इसलिए वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। मैं एकबार रूस में बोला था कि नास्तिकता से मृत्यु की प्राप्ति होती है। जीव भाव से पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म से एक तरह से अमृत की प्राप्ति हुई। हम मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे, भले ही अगला जन्म हो । अर्थात् मृत्यु से हम बच गए।

गुरुदेव का वाक्य है जो हम सुना करते थे, हम कोई नई बात नहीं कहते। सूकर खेत में तुलसीदास ने सुनी थी तो वे कहते हैं कि तब मुझ में अज्ञान था, तब मैंने समझी नहीं। अब गुरु जी नहीं है तो समझ में आ गई। क्योंकि तब तो उनके पास रहते थे। जैसे कुत्ता या छोटा बच्चा अपने मालिक के साथ साथ जब रहता है तो निश्चिंत रहता है, ऐसे ही उस समय अपने को कोई परवाह ही नहीं थी। तो गुरुदेव यह कहा करते थे कि जब मैं नहीं रहूंगा तब लोग कहेंगे तुम अपने को ब्रह्म कहते हो, तब पता चलेगा! तो जैसे तुलसीदास जी को उस समय समझ नहीं आई पर जो सुना था तब नहीं, बाद में समझ आई। तो गुरुदेव कहते थे-

जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, है बुद्धि की अवस्था
जगती है बुद्धि तुम जगे लगने लगते हो, आती है बुद्धि तुम आए लगते हो, सोती है बुद्धि तुम सोए लगने लगते हो, होती है बुद्धि तुम हूं लगने लगते हो। बुद्धि के कारण तुम हूं लगने लगते हो और बुद्धि जब नहीं रहती, लगना बंद हो जाता है। कहीं चले जाते हो ?मर जाते हो? ऐसा कुछ नहीं है ।इसलिए बुद्धि के कारण जितना मालूम पड़ता है बुद्धि के ही कारण बदलता भी रहता दिखता है। तो बुद्धि के रहते जब यह भ्रम टूट जाए कि मैं केवल बुद्धि तक नहीं हूं, जब बुद्धि नहीं थी मैं तब भी था और जहां बुद्धि नहीं है वहां भी मैं हूं, यह स्वीकार करना बहुत श्रद्धा का काम है! इसलिए श्रद्धावान लभते ज्ञानम्
केवल तर्क ही नहीं श्रद्धा! क्योंकि बार-बार हमारी बुद्धि कहेगी ‘मैं यहां नहीं हूं’ और हम देह में हैं! कब तक देह में है यह पता चलता है? जब तक मन, बुद्धि है। बुद्धि के न रहने पर आप देह में थे? कहां थे? तो सारी अनुभूतियां हमारी मन बुद्धि पर निर्भर है। पर थोड़ा सा श्रद्धा से समझोगे तो जब बुद्धि नहीं रहती नींद में, सुषुप्ति में तब देह आदि का विशेष ध्यान ही नहीं होता। जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति है बुद्धि की अवस्था!
मैें बुद्धि से परे हूं याते सदा शिवोsहम्।।

बुद्धि का आश्रय भी मैं ही हूं। तो बुद्धि का आश्रय मैं हूं और बुद्धि प्रत्यय जितने हैं उन अनुभूतियों का आश्रय भी मैं ही हूं साक्षी। इसलिए मैं बुद्धि से परे हूं! याते सदा शिवोsहम्! अब सदा शिव हूं ,कल्याण रूप हूं, जगता सोता नहीं हूं। बुद्धि से परे भी हूं और बुद्धि को धरे भी हूं। पर ऐसा भी नहीं ,जब बुद्धि है तब उसका आश्रय हूं। जैसे घड़े आदि उपाधि की मिट्टी आश्रय भी है। घड़ा किस में रहेगा? स्वतंत्र तो रह नहीं सकता तो कोई अनुभूति….. चाहे जागृत हो, स्वप्न या सुषुप्ति हो, कोई अनुभूति चेतन का आश्रय लिए बिना रह ही नहीं सकती। यहां तक यदि कोई यह सोचे कि इतनी देर मैं नहीं रहा। यदि यह सच्चा अनुभव है कि मैं नहीं रहा, अनुभव हुआ भले चाहे जैसा हो, यदि यह अनुभव हुआ तो किसे हुआ होगा आपके बिना? यदि अपने न रहने का आपको अनुभव हो गया कि इतनी देर मैं नहीं था या मुझे होश नहीं था तो होश के अभाव का साक्षी चेतन ही रहा होगा। यह कोई जड़ कहेगा क्या? क्या यह कोई जड़ कहेगा? इसका मतलब बेहोशी का साक्षी भी चेतन होता है। इसलिए बाहर भीतर एक रस जो चेतन भरपूर। विभु नभ सम सो ब्रह्म है ,नहीं नेरे नहीं दूर

चेतन कभी दूर भी नहीं होता। जागृत कभी दूर हो जाता है, सपना नजदीक हो जाता है। कभी नींद बहुत नजदीक होती है, कभी नींद चली जाती है। यह सब नेरे हो जाते हैं , दूर हो जाते हैं। पर अपना आप कब नेरे होगा? कब दूर होगा ? इसलिए नहीं नेरे नहीं दूर अपना आप कभी नजदीक नहीं होता, अपना आप कभी दूर नहीं होता अपने से। इसलिए दूर और पास होना, होना और खो जाना, जागना और सो जाना मायामात्र है सच्चाई नहीं। आत्मा को सही सही जानकर कोई कर्तव्य मोक्ष के लिए शेष नहीं रहता तो देखो जैसे मिट्टी घड़े के कभी पास हो सकती है, कभी घड़े का अभाव हो सकता है। कभी घड़ा है मिट्टी में, कभी नहीं। कहीं है कहीं नहीं। आपमें कभी अंतःकरण है कभी नहीं है। कभी कोई अवस्था है कभी नहीं है। आप कब अपने पास नहीं है? कब नहीं है? पर हममें ये अवस्थाएं है ही नहीं इसलिए इसको कहेंगे अनात्माध्यास। अनात्म में आत्मबुद्धि। यह मुझे “मैं” लगते हैं तो इन का अभाव मुझे मैं का अभाव लगता है। जागना मुझे अपना जागना लगता है। इसलिए जागने का अभाव मुझे अपना सोना लगता है। जबकि जागना और जागने का अभाव दोनों मेरे बिना नहीं हो सकते ।मेरे बिना जागना-सोना संभव ही नहीं। लेकिन यह गुरुदेव से सुना ,जाने क्या कहते थे……… ‘भ्रम ना सकै कोउ टार’
रजत सीपी मां भास जिमी यथा भानु कर बारि।

यद्यपि मृषा तिहूं काल में भ्रम ना सकै कोउ टार।।
गुरुदेव यह भी बोल देते थे कोई नहीं टाल सकता? गुरुजी को यह पसंद नहीं था। तो हमारा कैसे गया? (महाराज जी की तरफ देखते हुए) आपका कैसे गया? कोउ ना टार सकै यह गड़बड़ है ,तो कहते थे भ्रमण यह “भ्रमना” सकै कोउ टार । यह भ्रमना कोई कोई टार सकता है। भ्रमना अर्थात यह भटकना सकै कोउ टार अर्थात कोई टाल सकता है। यह गुरुदेव का तर्क है। हमारे गुरुदेव पढ़े नहीं थे पर ऐसा कुछ नहीं है जो क्लियर नहीं करते थे। इसी तरह यह जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति का बुद्धि से परे हूं यह तो लिखा है पर गुरुदेव “बुद्धि को धरे हूं” अपनी तरफ से बोलते थे। ऐसे ही विचार करके देखो प्यारे जगत बना है मन से यह तो बोल देते थे, अब कहीं उस कीर्तन में यह शब्द ही नहीं है तो गुरुदेव बोलते थे जगत बना है मन से फिर कहते मन बना है हमसे हमसे हमसे!!
मन कहां से आया? कहते थे हमसे!