यह सब अनेक दिखता है, अनेक इंद्रियों से दिखेगा। इसलिए यह भी देख, वह भी देख, इन नयनों का, इन इंद्रियों का यही सलेख। पर देखत-देखत ऐसा देख, देखत-देखत कर वह भी देख, देखत- देखत एक ही देख कि मिट जाए दुविधा, मिट जाए द्वैत, झूठा हो जाए अनेक, पर एक दिखाई पड़ जाए । यह प्रयत्न सहज नहीं है। जैसे द्वैत मन-बुद्धि से दिख जाता है, ऐसे अद्वैत नहीं दिखेगा। अद्वैत देखने की इच्छा हो, तभी कहा है – अमृतत्वम् इच्छन्, अमृत की इच्छा तुम्हें होनी चाहिए, क्लियर होनी चाहिए कि ज्यादा दिन जीना चाहते हो कि अमर होना चाहते ? ज्यादा दिन सुखी रहना चाहते हो कि सदा सुखी रहना चाहते हो? तुम कौन सा जीवन चाहते हो जिसमें चिंता ना रहे या चिंता बनी रहे? कैसा ताला मकान में लगाना हो? जिसमें थोड़ी चिंता बनी रहे? कैसा ताला मिल जाए, कैसी सुरक्षा मिल जाए कि निश्चिंत होकर टांग फैला कर सो जाएं और कहीं चले जाएं, कोई चिंता न रहे। कैसा ताला चाहिए? ताला भी लगाएं और धुक-पुक भी बनी रहे? संभाल के भी रुपये रख दिये फिर भी धुक-पुक बनी है कि कहीं कोई ले न जाए?
चित्रकूट तो इस मामले में पहले से ही बदनाम है । यहाँ तक कि राम भगवान से लोगों ने कह दिया –
“नाथ हमार यही सेवकाई, भूषन बसन न लें चुराई।”
हम आपकी चोरी न करें बस इतना ही समझो; बाकी तो यह हमारा धंधा है। चलो राम जहाँ रहे वहाँ तो ऐसा ही था लेकिन कृष्ण तो खुद ही गड़बड़ करते थे। तो फिर कैसे समझोगे कि तुम कौन हो ? जब यह जान लो कि सौ प्रतिशत खिलाड़ी अपने को समझते हुए खेल खेलता है। नट के लिए रामायण में लिखा है-
अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोई। सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।
मेरे गुरुवर के कहने का आशय यही है की आप जीवन को सिर्फ़ नाटक के सिवा कुछ ना समझे और अच्छे अभिमेता की तरह जियें या खेले क्योंकि अभिनेता हर समय नाटक में ही इन्वोल्व नहीं रहता नाटक के बाद वो नोर्मल हो जाता है पर यहाँ दुविधा यही है की आप पहले तो इस दुनिया या जीवन को नाटक नहीं समझते पर अगर आपमें इस विषय को समझने की चाह जाग गयी तो एक दिन समझ ही जाओगे फिर ना कोई दुःख ना कष्ट फिर सिर्फ़ देह का जो प्रारब्ध है वही शेष रहेगा इस पर मेरे गुरुदेव कहते हैं –
देह धरे का कष्ट है, हर काहू को होय। ज्ञानी भोगे ज्ञान से, अज्ञानी भोगे रोए।।
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