जिससे सृष्टि हुई है वो उसका साक्षी है। अब गड़बड़ क्या है? जो साक्षी है उसे व्यापकता का पता नहीं है और जो व्यापक है उसको शायद समझाना- समझना कठिन है। अब आप अपने सपनों के साक्षी हो, आप जागृत के भी साक्षी हो कि हम जग गए। जगना खत्म हो जाता है, स्वप्न खत्म हो जाता है, पर मैं उस समय मौजूद था। स्वप्न तुम्हारे रहते हुआ, तुम्हें ही दिखा और तुम्हारे रहते खो गया। एक जरूर है कि “स्वप्न तुमसे हुआ, तुममें रहा और तुममें खो गया, तुम नही खोए इतना तो पक्का है!”
अभी सारी दुनिया का विचार मत करो, सृष्टि का विचार मत करो, स्वप्न का करो। स्वप्न तुम्हारे बिना नहीं हुआ, तुम्हारे बिना नहीं रहा और स्वप्न खो गया पर तुम नहीं खोए। स्वप्न के तो तुम सचमुच ईश्वर हो, जागृत के तो नहीं, विश्व के नहीं पर “वेदांत कहता है कि जब तक स्वप्न की ही तरह सारी सृष्टि तुम से होती है, तुम में रहती है, तुममें खो जाती है इस सत्य को नहीं जानते तब तक तुम अपने को नहीं जानते।” यह महत्वपूर्ण है। यही मुख्य बिंदु है वेदांत का। भले हम समझा पाए या नहीं, तुम समझ पाये या नहीं, कोई समझे या नहीं पर सत्य यह है कि जब तक यह पता ना चले कि सारी सृष्टि मुझसे होती है, मुझ में रहती है, मुझमें लीन होती है, मैं था, हूं, और रहूंगा और मैं सृष्टि के कण-कण में हूं! यह समझना मुख्य है। उदाहरण के लिए फिर स्वप्न में जायेंगे। इतना तो तुम भी मान लोगे कि स्वप्न मेरे से हुआ, मुझ में रहा, मुझ में खो गया पर दूसरा विचार करो कि क्या स्वप्न में तुम यह सोच पाए कि सारा स्वप्न मुझ में हुआ है? सारा स्वप्न ! एक देह तुम थे, एक देह मैं हूं और यह मेरे से अलग है ऐसा जानते थे पर कभी नहीं समझा कि यह साप भी मैं ही हूं, यह सड़क भी मैं ही हूं! थे तुम्ही! स्वप्न की सड़क, स्वप्न के दुश्मन, स्वप्न के परिवार, स्वप्न के विरोधी सब तुम ही थे पर नहीं जान पाए! कब समझ आया सब तुम ही थे? जब जग गए! तो अब “जगने की क्या पहचान है? जब यह समझ में आ जाए कि सारी सृष्टि मुझसे होती है, मुझमें रहती है, मुझमें लीन होती है।” ब्रह्म से होती है, ब्रह्म में रहती हैं, ब्रह्म में लीन हो जाती है यह विश्वास करने वाले अरबों लोग हैं ; इसलिए इसको परोक्ष ज्ञान कहते हैं। पर मुझसे हुईं है, मुझमें रहती है, मुझमें लीन हो जाती है ऐसा समझने वाले करोड़ों में एक है! इसलिए भगवान को कहना पड़ा कि कोई कोई मुझे तत्व से जानता है। “यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति।।” फिर भी वहां भगवान ने कहा है, जो मुझको सब में देखता है, सबको मुझमें देखता है! अंत में वेदांत क्या कहता है? ‘जो अपने में सबको देखता है’ यह भी मंत्र है ईशावास्योपनिषद का! जो अपने में सबको देखता है, सबमें अपने को देखता है “ततो न विजुगुप्सते” इसका मतलब देखता है यह तो है ही पर इसका लाभ क्या है? कहते हैं फिर उसके अंदर जलन नहीं होती। इस ज्ञान का फल! इस ज्ञान का लाभ! सचमुच ज्ञान का लाभ!!!! पढ़ लेने का नहीं!
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