तेरी बज्म में रहना
सुकून था मेरा
पर इतनी बार तूने
बे-वजह साथ छोड़ दिया,
अब हक़ समझा हूँ
जो मेरा मुझी पर है
इसी वजह से मैं
तुझसे मुँह मोड़ बैठा हूँ ,
तूँ रूह है मेरी अब
धड़केगी हर सू
बस तेरे आवरण से
ताल्लुकात छोड़ बैठा हूँ,
तेरे तन से और मेरे मन से
मेरी ज़मीं, ज़मीं ना ज़मीं
पर अपनी रूह से तो
कब का तुझे जोड़ बैठा हूँ,
अब भी चश्मेतर में तैरती है
तू भर के मुझे
मैं तुझमें हूँ
या तू मुझमें
ये भी भूल बैठा हूँ,
अब किसी और रूप से
ना लुभाना मुझे
मैं अपनी साख से गिर
कब का टूट बैठा हूँ।
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