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सजग होकर जीवन छोड़े

सुकरात की जब यह दशा हुई, तो अंत में वह और आनंदित हुआ। “मैं” आनंद में हूं। शरीर छूट रहा है। वह देख रहा है-आनंद में है; क्योंकि, वह मर ही नहीं रहा, वह देख रहा है, आनंद में है। वह तो जी रहा है और देख रहा है कि “मैं हूं”, “मैं हूं”। शरीर छूटता जा रहा है। शरीर शिथिल होता जा रहा है। अंत में वह कहने लगा कि देखो! इतने अंग और छूट गए, इतने कपड़े मैंने और उतार दिए। थोड़े उतारने और बाकी हैं। यह भी उतरने वाले हैं। इसलिए , आखिरी बार बोलता हूं; क्योंकि, बोलने का साधन जबान थी, वह भी उतार दे रहा हूं। चश्मा उतर जाएगा, देखना बंद हो जाएगा। “मैं” तुम्हें देख ना सकूंगा। लेकिन, यह मैं बताये देता हूं कि आंखें बंद हो जाएंगी, तो देखना बंद हो जाएगा। जबान उतर जाएगी, तो बोलना बंद हो जाएगा। परंतु , “मैं” जीवित हूं। आखिर समय तक “मैं” यह देखता चला जाऊंगा कि मौत क्या है? जो आखिरी समय तक मौत को देख लेता है, वह नहीं मरता है। जो आखिरी समय पर मौत को नहीं देखता, वह मर जाता है।
सुकरात तो बचता चला गया, बचता चला गया और मौत होती चली गई। जो बचता चला गया, वही देख पाया कि उसकी मौत कभी होती ही नहीं। यह तो वही देखता है, जो होश में होता है। इसलिए, बहुत बड़ी साधना की आवश्यकता है कि सजग होकर अपने जीवन को देखो। ऐसा कोई ही महापुरुष है, कोई ही निष्ठावान है, जो जीते जी मरने का अभ्यास करता है।
लोग कोठियां बनवाने में लगे हैं; अभी मृत्यु कि कौन सोचता है? यह कोठियां धरी रह जाएंगी, यह धन रखा हुआ रह जाएगा। कोई काम न आएगा। निर्भय होकर कोठियां बनाओ; खूब मकान बनाओ; लेकिन, मुक्त होकर बनाओ। जो पहले से अपना कल्याण नहीं कर पाते, अपना जीवन नहीं बना पाते; वे सत्य को नहीं पाते। वे जो कुछ पाएंगे, सब खो जाएंगे। अपने को तो पहले ही खो बैठे हैं। इसीलिए, सब खो देने वालों को इकट्ठा करो; लेकिन, स्वयं को तो पा लो। सब कुछ खोकर कोई स्वयं को पा ले, तो कोई हर्ज नहीं है, किंतु, लोग स्वयं को खो दें, इससे बड़ा अपराध संसार में नहीं है। उपनिषदों में आता है कि वे आत्महत्यारें हैं; बड़े ही कृपण लोग हैं; जो आत्मा को जाने बिना ही चले जाते हैं।

श्रवण, मनन, निदिध्यासन

वृक्ष को जन्म देने के लिए, बीज को शांत होकर जमीन में बैठ जाना होगा। जब हमने शास्त्रों द्वारा सुन लिया, गुरुजनों से सुन लिया कि “मैं आत्मा हूं” या ” मैं ही ब्रह्म हूं “तो अब पाने की अभिलाषा खत्म। अभी मिला नहीं है, अनुभव में नहीं आया है, तो भी शास्त्र – बल से तुम्हारी बुद्धि, जो बहिर्मुखी थी, वह शांत हो गई। गुरु – वचनों से तुम्हें लगा कि तुम जो मर जाने वाले थे, नहीं मरते। लेकिन, अभी पूर्ण शांति नहीं आई। अभी चित्त थोड़ा सा शांत हुआ है। जब हम ही हैं, तो कहां जाएं। क्योंकि, वह हम में है, तभी बुद्धि शांत होने शुरू हुई। जब बुद्धि शांत हुई, तो अंदर का जो साक्षी है, अंदर जो चैतन्य है, अंदर जो आत्मा है, वह आंखों में आना शुरू हो जाएगा। यह हुआ ध्यान।
पहले हुआ श्रवण; फिर श्रवण किए हुए पर विचार किया। जब मन को सच्चा लगने लगा, तो बुद्धि अपने – आप वैसी ही होनी शुरू हो जाती है। यह बुद्धि का नियम है। यदि तुम्हारे मन में आवे कि वहां मूत्र होने के लायक जगह है, तो वहीं मूत्र के लिए जाओगे। छोटी सी क्रिया के प्रति हम जो फैसला करते हैं, वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। जब तुम्हारे चित्त में यह फैसला हो जाए की अंदर की आत्मा अविनाशी है और वह अंदर ही है; तो आनंद की जो तलाश बाहर थी, वह रुकेगी और अंदर बैठना शुरू होगा।
इस बैठने को ही हम उपासना कहते हैं। सुनने को कर्म कहते हैं। पा जाने को (अनुभव में आ जाने को ) ज्ञान कहते हैं। यह जो सुनते हो उसे श्रवण कहते हैं। यदि तुमको सुनने में अच्छा लगे और वैसा ही तुम्हारा मन अंदर से शांत होने लगे, तो उसे “मनन” कहते हैं। तुमको यदि जंच गया और मन शांत होकर अंदर आनंद की अनुभूति होने लगी, तो उसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। अंदर साक्षात्कार न हुआ हो; परंतु, अनुभव में आने की तैयारी होने लग जाए, सच्चा लगने लग जाए; तो इसे हम “निदिध्यासन” कहते हैं। यदि पूर्ण साक्षात्कार हो जाए, तो श्रवण, मनन और निदिध्यासन व्यर्थ है।
ध्यान शब्द का अर्थ है “निदिध्यासन”। निदिध्यासन को कई जगह ध्यान भी कहा गया है। ध्यान का अर्थ है कि सुने हुए का अनुभव करने के लिए चित्त तद्रूप होकर शांत होता जाए। वृत्ति निश्चल होती जाए, यह ध्यान है। उस ध्यान के निश्चलता में यदि बुद्धि की वृत्ति बिल्कुल शांत होकर उस आनंद में निमग्न हो जाए, अंतर्साक्षी का अनुभव होने लग जाए, तो उसे हम साक्षात्कार कहते हैं। इसी को समाधि कहते हैं।

एक चैतन्य

मैं ही एक चैतन्य हूं!! अनेक चेतन है ही नहीं, अनेक तो चिदाभास है!!
अंतः करण के कारण अनेक चेतन लगते हैं। मैं अलग, तुम अलग। सपने में भी अलग अलग थे ना? जगने में पत्नी मिली सपने वाली? गैया मिली सपने वाली? मकान मिले सपने वाले? नहीं! दुश्मन, सांप जिससे डरते थे, जागने पर मिले क्या? नहीं ना? ऐसे ही  एक चैतन्य दृष्टा है और मैं ही सर्व का दृष्टा हूं ,सब मुझ में ही है, सब मुझमें है ,सब में मैं हूं, यह सब तो सपना है, एक आत्मा ही सत्य है और सर्वव्यापक है, सर्वसाक्षी है ऐसा अनुभव करो!

देखो, गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन की पीठ थपथपाई, श्रेष्ठ कहा, आर्य कहा, कुलश्रेष्ठ, पांडव, धनंजय, हे मित्र, पुरुषोत्तम, नरोत्तम आदि शब्दों से संबोधित करके प्रोत्साहित किया। फिर भी ज्ञान दिए बिना काम नहीं चला। इसका मतलब यह नहीं कि फिर पीठ थपथपाने की जरूरत नहीं है। पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ नहीं थपथ पाओगे तो तुम पीठ देकर चले जाओगे। तुम गुरु को भी पीठ दे जाओगे, तीर्थों में भी आना बंद कर दोगे। किसी पण्डा से दुःखी होकर कान पकड़ लोगे कि अब हम कभी नहीं आएंगे। इसलिए आप की दुर्बलता को देखते हुए आपकी पीठ थपथपाना जरूरी है। पीठ थपथपाने से शायद आगे का कदम बढ़ जाए। थपथ पाने में रुकना मत।

इतनी प्रशंसा करके भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। इतने चमत्कार दिखा कर भी ज्ञान दे रहे हैं। कहीं तुम्हारा विश्वास डगमगा न जाए इसलिए चमत्कार दिखाए, प्यार दिया। युद्ध में तुम्हारे साथ खड़े हो गये। तुम जो चाहते हो तुम्हारी इच्छाओं के साथ भगवान खड़े हो गए लेकिन तुम अभी उनकी इच्छा के साथ खड़े नहीं हो।इसलिए भगवान कहते हैं –

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
( जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।)

अर्जुन भगवान को एक जगह खड़ा देखेगा कि सर्वत्र? ये इंद्रियाँ तो एक ही जगह देखेंगी, इंद्रियाँ सब जगह कैसे देखेंगी? क्योंकि ये रूप को देखती हैं। रूप व्यापक नहीं है। जिसको घड़ा देखते हो तुम उसको सकोरा कैसे कहोगे? क्या मति मारी गई है जो आप घड़े को सकोरा कहोगे? कोई ऐसा है मंदबुद्धि जो ईंटा को घड़ा कहे? उसके अलग-अलग नाम हैं। यहाँ घड़े हैं, व्यापक कैसे कहे अर्जुन?
ये एक जगह जो खड़े हैं वो सब जगह हैं। ये एक जगह जो घड़े के रूप में हैं वो अनेक रूपों में हैं। अनेक रूप रूपाय….. क्या उनको अनेक रुप होना है। क्या कोई अभिनेता हैं जो कि थोड़ी देर पहले कुछ बने थे, फिर कुछ बने। असल में, उनका स्वरूप ही ऐसा है कि सब रूप वही हैं। होना ही नहीं उनको। अनेक रुप रूपाय, उनका रूप क्या है, जो सब रूप हो वही उनका रूप है। जो सर्व रूप नहीं है वह भगवान नहीं हो सकता। तुम्हारी शुरुआत एक रूप से शुरू होगी। इसलिए तुम कृष्ण भगवान से शुरू करो, गुरु भगवान से शुरू करो पर गुरु भगवान का काम, कृष्ण भगवान का काम तब होगा जब भगवान सब रूपों में दिख जाए। तुमने कभी भगवान को सब रूपों में देख पाया है या नहीं? एक वही मिट्टी घड़े के रूप में, वही मिट्टी ईंट के रूप में, वही सकोरे के रूप में है कि नहीं? वही है ना? इसे तो तुम देख पा रहे हो, यह तो उदाहरण है पर हम वह दिखाना चाहते हैं जो एक ही है। चाहे उसका नाम मैं हो, चाहे आत्मा हो, चाहे ब्रह्म हो उसको देखो। विश्वास ही न करो। वैसे तो बिना विश्वास के तुम्हारे कदम ही नहीं उठेंगे इसलिए कहा है बिनु विश्वास न कौनो सिद्धि। और सिद्धि तो छोड़ो बिना विश्वास के ज्ञान सिद्धि भी नहीं हो सकता। इसलिए विश्वास से चलो और अंत में अपरोक्ष देखो। उसको देखो जो सर्व रूप है। इसलिए भगवान एक रूप में खड़े होकर तुम्हारे अंदर योग्यता लाकर, प्यार देकर, चमत्कार दिखाकर, दिखाएंगे अनेक रूप। अनेक रूप रुपाय विष्णवे प्रभ विष्णवे सच्चिदानंद रूपाय देवाय परमात्मने नामः।

चित्त मदिरा पे रखोगे, तो बहक जाऔगे,
चित्त चाँद पे रखोगे, तो शीतलता पाऔगे,
चित्त चैतन्य पे रखोगे, तो आनुभूति पाऔगे,

लेकिन…
चित्त “गुरुचरण” पे रखोगे तो लाख चौरासी से बच जाओगे।
“सतगुरु” के लिये खर्च की हुई कोई भी चीज, कभी व्यर्थ नहीं जाती।
चाहे वो साँसें हो चाहे वक्त।

चिंतन का विषय

एक बहुत बड़े चिंतक थे, वे यह कहते थे, ‘ईश्वर ने मनुष्य नहीं बनाया मनुष्य ने ईश्वर बनाया’। हो सकता है जिन ईश्वरों को बनाया है तुम लोगों ने, बना लिए हैं पूजा के लिए, वह ईश्वर नहीं है! ईश्वर है ही वह जिससे दुनिया हुई है। हम नाम नहीं लेते उसका, इस्लाम भी उसका नाम नहीं लेता, अल्लाह कहता है, खुदा कहता है। हम ईश्वर उसे कहते हैं जिससे दुनिया पैदा हुई है। वह ईश्वर है जिसको मनुष्य ने पैदा किया है। वह मंदिर हो सकता है, वह मूर्ति हो सकती है, पूजा पद्धति हो सकती है, ईश्वर को किसी ने पैदा नहीं किया, ईश्वर ही है जिसमें दुनिया पैदा हुई है और ईश्वर से आज भी पैदा होती है। और फिर बता दें, हम अपने वेद के मंत्र बताते हैं, हम बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – – 
यतो वा इमानि भूतानि जायंते 
जिससे यह सारी सृष्टि पैदा हुई है, येन जातानि जिसके द्वारा यह पैदा की गई है, जीवंति अर्थात जिसमें यह जीवित रहती है उसे ब्रह्म कहते हैं। उसे जानो जिससे सृष्टि पैदा हुई है, जिसमें रहती है और जिसमें अंत में लीन हो जाती है! उसको ईश्वर कहते हैं।
कोई व्यक्ति ईश्वर क्यों नहीं है? क्योंकि यह हो सकता है कि दो- एक बच्चों को पैदा कर भी दे…… यहां बहुत लोग हैं माता-पिता जिन्होंने पैदा किया है लेकिन नौ महीने मां के भरोसे था। थोड़े दिन तक दूध पीकर जिया नहीं तो मर जाता। लेकिन अब माँ- बाप मर गए और वह जिंदा है। ज्यादातर सबके मां-बाप, बाबा मर गए लेकिन बेटे हैं, नाती हैं। भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। 

भगवान ऐसा नहीं है कि उसने पैदा किया और वह बूढ़ा होकर मर गया और दुनिया चली गई। ईश्वर था, है, और रहेगा! दुनिया उसने पैदा की है। आज भी वही पैदा कर रहा है। यह गलतफहमी है कि पैदा करते दिखाई नहीं देता। जो लोग बिना समझे ईश्वर की बात करते हैं उनका में खंडन भी करता हूं। राम ही लोग खिलौना माना ईश्वर कोई तुम्हारा खिलौना है? जैसे बच्चे खेल लेते हैं, कुछ  बना लेते हैं ऐसे ही तुमने ईश्वर मान लिया और जब मन का नहीं हुआ तो फेंक दिया। यह ऐसी कहानी है कि समय लूंगा तो बढ़ जाएगी। आप ठाकुर जी को मानते हो पर नाराज हो जाओ तो फेंक देते हो। एक यादव जी थे उनकी भैंसे खो गई। बहुत मनाया ठाकुर जी को पर नहीं माने तो ठाकुर जी को तालाब में फेंक दिया। मैं यह नहीं कहता कि पूजा ना करो करो पर यह हमारे स्वीकार किए हुए भगवान हैं। यह उनके स्वीकार किए थे, नाराज हो गए तो फेंक दिए। और संयोग की बात यह हुई कि उसकी  भैंस आ गई। अब कहने लगा तालाब में से डुबकी लगाकर ढूंढ के लाऊं ठाकुर जी को। तो कहता है ठाकुर जी को कि पहले ही ढूंढ देते तो यह दुर्दशा ना होती! तो तुम तो ऐसे भगवान मानते हो! गुरु को भी ऐसे ही मानते हो! आज मानते हो कल नाराज हो जाओगे। कईयों ने बंद कर दिया गुरु के पास जाना। तो… गुरु को तो मानते हो पर गुरु का खंडन कैसे करोगे? 

ईश्वर से गुरु में अधिक धारे भक्ति सुजान। बिन गुरु भक्ति प्रवीणहूं लहे न आतमज्ञान॥

कौन भगवान?

आप मरे जग प्रलय
पहले तुम्हारा अज्ञान मर जाए, फिर पीछे ज्ञान भी मर जाएगा। ज्ञान भी बचता नहीं है। पहले तुम्हारा अहंकार मर जाए, पीछे परमात्मा भी मर जाएगा अर्थात् परमात्मा भी अहंकार के साथ ही खत्म होता है। अहंकार के कारण ही भगवान् की तलाश है कि वह कहीं होगा। जिस दिन अहंकार मर जाएगा, उस दिन भगवान् भी किसी दुनिया में नहीं मिलेगा, न ढूंढना पड़ेगा। उस दिन भगवान् भी गए। तुम हो, तो भगवान् भी है। तुम्हारा अहंकार मरेगा, तो भगवान् भी नहीं रहेगा। फिर जो रह जाएगा, उसे भगवान् न कर पाओगे, “मैं” न कह पाओगे। जब “मैं” हूं, तो भगवान् कहूं; दो हैं , तब तक कहूं। पर जब दो ही न रहे, तो भगवान् बचा कि भक्त बचा? क्या कहोगे? यदि भक्त कहोगे, तो कोई भगवान् होगा। बिना भगवान् के कोई भक्त नहीं होता। यदि कहो कि भगवान् बचा तो भगवान् अकेले किसका भगवान्? यदि भक्त नहीं बचा, तो किसका है भगवान्? भगवान भी किसी का होता है ।
ईश्वर माने किसी का मालिक। यदि कोई कहे कि प्रजा न बचेगी, राजा बच जायेगा। यह वाक्य बिल्कुल गलत है। यदि प्रजा नहीं बचेगी, तो राजा कैसे बचेगा? यदि कोई कहे कि प्रजा भर बचेगी, राजा न बचेगा। तो प्रजा होती किसकी है? वह प्रजा प्रजा ही नहीं यदि राजा न हो। प्रजा तो उसी को कहते हैं, जो कि शासन में हो। इसीलिए, भक्त बचेगा, तो भगवान् बचेगा और भगवान बचेगा, तो भक्त बचेगा। एक चला गया, तो दूसरा अपने – आप साफ हो जाएगा।
अब बताओ तुम मरना चाहते हो या भगवान् को मारना चाहते हो? गुरु को मारना चाहते हो कि तुम मरना चाहते हो? किसमें ज्यादा अच्छाई है? तुम कहोगे कि भगवान् ही मर जाए, तो अच्छा है। हम बचे रहें । किंतु , भगवान् का मारा जाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम उनके मारने के लिए जिओगे, तब तक वे जबरदस्ती जिंदा रहेंगे। तुम्हारे जिंदा रहने से भी वे जिंदा हैं। यदि तुम भगवान् को मारने के लिए जीते रहोगे; तो कितना ही मारो, पर भगवान् मरेंगे नहीं । यदि चेले जीते रहें , तो यह सत्य है कि गुरु तमाम पैदा हो जाएंगे। इसीलिए, ज्यादा अच्छा यह है कि किसी को मारने से पहले तुम स्वयं मर जाओ। “आप मरे जग प्रलय” ऐसा हमने सुना है। तुम मर गए, तो भगवान् भी मर गया, मुक्ति भी मर गई मर गई, मन भी मर गया, अशांति भी मर गई और शांति भी खत्म। अधमरे में मिल जाएगी मुक्ति , अधमरे में मिल जाएंगे भगवान्। पूरे मर जाओगे, तो न भगवान् मिलेंगे और न तुम रहोगे।
भगवान् थोड़ा-थोड़ा मरने से मिल जाते हैं; पूरे मरने पर नहीं मिलते और बिल्कुल बचने पर भी नहीं मिलते। पूरे जो बचते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। और जो पूरे मर जाते हैं, उन्हें भी भगवान् नहीं मिलते। मिलना और मिलाना अधमरों का है। जो अपने को पूर्ण बचाए हैं, वे तड़पते रहें; उन्हें भगवान नहीं मिलते। यदि पूरे मर जावेंगे, तो फिर मिलेंगे किसको? इसीलिए, यह मिलने – मिलाने का भाव ही बीच में रहता है। जो जानते हैं, वे यही जानते हैं कि क्या मिलना है और क्या किससे मिलना है।

समझ सको तो समझो

गुरुजी कह रहे थे कि तुम निर्विकार हो जाओगे, तुम अविनाशी हो जाओगे; यह सुनकर देहाभिमानी अविनाशी बनने के लिए चला। लेकिन गुरुजी के चेले बनने के बाद भी देह  बूढ़ा हो गया। देखो, मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ न!  पर एक बात है, जब तक बुढ़ापा आया तब तक समझ बदल गई। गुरुजी के पास आए थे मरने से बचने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि शरीर मैं नहीं हूँ। गुरुजी के पास आये थे निर्विकार होने के लिए, गुणातीत होने के लिए तो गुरुजी ने समझा दिया कि  गुण मैं नहीं हूँ। गुणातीत होना नहीं है, गुणातीत हूँ। गुणों  के रहते, गुणों के बदलते मैं  गुणातीत हूँ।  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीनों गुणों की अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति तमोगुण की अवस्था है, स्वप्न रजोगुण की और जाग्रत सत्त्व गुण  की अवस्था है।  और मैं इनका साक्षी गुणातीत हूँ। शंकर भगवान तमोगुण के देवता है पर वे गुणातीत हैं। विष्णु भगवान सत्त्वगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण के देवता हैं पर वे गुणातीत हैं। गुण हैं तो शरीर है पर आप शरीर नहीं हो। शंकराचार्य कहते हैंः  नाहं देहोऽहमात्मेति।  मैं देह नहीं हूँ। ये शब्द कब बोले?  जब उनका देह नहीं था तब बोले क्या? नहीं, देह के रहते बोले कि मैं देह नहीं  हूँ। गुणों के रहते तुम गुणातीत हो सकते हो। जब गुण ही नहीं होंगे तो गुणातीत कैसे?  नदी ही न हो तो पार कैसे किया?  पार तो तभी करते जब नदी हो।

     गुण हैं, गुण देखते हैं, परिवर्तन दिखता है और इसी में देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन बंद हो जाए तब तो मूर्ख भी देख लेगा।  परिवर्तन बंद नहीं होता तब भी देखना है कि मेरा परिवर्तन नहीं होता।

आत्मानुभव के अवयव

तुम्हें भी पूरा शान्त होना पड़ेगा। यह बहुत बड़ा तप है। चुप हो जाने, शान्त हो जाने जैसा तप ब्रह्मांड में नहीं है। शीर्षासन लगाना, भूखों मरना, रात में जागना, अखंड रामायण पाठ करना, जपादि करना, यह सब थोड़े-थोड़े तप हैं। लेकिन, बिल्कुल मौन, शान्त हो जाना, बहुत बड़ा तप है। मन कहेगा बोलो और गुठली कहेगी कि उसे निकाल कर बाहर कर दो। किसान कहेगा, “हम तुम्हें और दबा कर रखेंगे, जबरदस्ती दबा कर रखेंगे”। कई-कई बीज तो शायद छ: महीने दबाकर रखने पड़ते होंगे। इसी प्रकार अपने मन को बिल्कुल शांत कर, मौन होना पड़ेगा, न तन डोले, न मन। न मन बोले, न तन बोले, न आंख बोलें और न हाथ बोलें। सब मौन हो जाएं, सब शरीर मौन हो जाए। तन मौन हो, वाणी मोहन हो, बुद्धि शान्त हो; फिर देखो! वहां अंकुर आएगा। थोड़ी देर को ही कोई बिल्कुल शांत हो जाए, तो फौरन कोई अंदर पैदा हो जाएगा। चेतना तुरंत अंदर पैदा होगी; कहेगी “हूं” उस “हूं” को ही भगवान् कहते हैं। भगवान् अंदर से एकदम पैदा होते हैं। यदि नौ महीने का एकांत न पावे, तो संतान भी पैदा न हो। यदि कोई आदमी रोज – रोज ऑपरेशन करके देखता रहे, तो संतान को भी पैदा होने में मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए, प्रकृति ने बड़े अच्छे नियम बनाए हैं; नहीं तो आप थोड़े ही मांनते? लेकिन, प्रकृति गर्भाशय का दरवाजा ही बंद कर देती है, नहीं तो आदमी के मारे संतान पैदा ही न हो पाती। इसलिए मैं कहता हूं कि वह बहुत ही बहादुर आदमी है, जो अपनी आंखें, नाक, कान और इंन्द्रियां बंद करके अपने आप में बैठ जाता है। उसे आत्मानुभव हो जाता है।

जगत बना है हमसे

जो चेतन सब जगह भरपूर है, कहीं कम ज्यादा नहीं वह सिर्फ वहा मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है, बस यही जीवाध्यास है, यही बंधन है, यही समस्या है । तो…… सब जगह बराबर! और
एतावदेव जीज्ञास्यं तत्व जिज्ञासुनात्मना। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा।।

जो चेतन सर्वत्र है, सदा है, एक समान है और एक रस है ,जरा भी कम ज्यादा नहीं अब ऐसा चेतन हमको अपने में एक रस नहीं मालूम पड़ता। चेतन सर्वत्र तो मालूम ही नहीं पड़ता और जहा मालूम पड़ता है वहां भी एक रस मालूम नहीं पड़ता। जाग्रत में, स्वप्न में, सुषुप्ति में चेतन बदल जाता है ऐसा लगता है , जग जाता है, सो जाता है ऐसा लगता है। तो अभी आप आत्मा और ब्रह्म को जल्दी स्वीकार करें या ना करें पर ग्रंथ कहते हैं कि वह एक ही है , एक रस है, साक्षी हैं । करोड़ों नास्तिक स्वीकार नहीं करते इस बात को । तो जो स्वीकार नहीं करते वह नास्तिक और जो स्वीकार करते हुए नहीं मालूम पड़ता वे आस्तिक। स्वीकार तो करते हैं कि एक रस है, सर्वत्र हैं ,एक है। ना नहीं करते पर मालूम नहीं पड़ता। ऐसे ही हम पहले एक बात करेंगे कि जहां चेतन मालूम पड़ता है। चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता क्योंकि दो चीजें जानी गई-
यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा। तो अभी हम सर्वदा पर विचार करते हैं। सब जगह चेतन नहीं मालूम पड़ता यह तो मालूम पड़ता है पर (अपनी और हाथ दिखाते हुए )यदि यहां चेतन ना मालूम पड़ता तो समस्या ही कोई नहीं थी । यदि चेतनता आपको मालूम ही नहीं पड़ती की हूं तो दुख क्या था? बंधन क्या था ? चिंता क्या थी? चेतन सब जगह मालूम नहीं पड़ता जहा देह, मन, बुद्धि है वहां मालूम पड़ता है। तो जब चेतन एक रस है तो कभी मालूम पड़ता है कभी मालूम नहीं पड़ता यही चक्कर है। एक रस, सदा, सर्वत्र तो छोड़ दिया। अब विचार करना है तत् पद और त्वं पद पर। तत् पद भी अभी छोड़ दें विचार करे त्वं पद। तुम या मैं। मैं भी एक समान चेतन हूं यह मालूम नहीं पड़ता। चेतन हो जाता हूं, जड़ हो जाता हूं, जग जाता हूं, सो जाता हूं ऐसा मालूम पड़ता है। हमारे गुरुदेव इसके विषय में क्या कहते थे! चेतन वहाँ मालूम पड़ता है जहां मन बुद्धि है और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं इसलिए कभी मालूम पड़ते हैं कभी नहीं। और जहां मन बुद्धि नहीं है वहाँ मालूम ही नहीं पड़ता। तो सर्वत्र नहीं मालूम पड़ने का कारण सब जगह मन बुद्धि का अभाव। और एक जगह भी एक समान मालूम नहीं पड़ता क्योंकि मालूम पड़ते हैं मन बुद्धि के कारण और मन बुद्धि एक समान रहते नहीं। तो एक समान हम हैं ऐसा मालूम ही नहीं पड़ता।

नित्य दो हैं। परमात्मा नित्य है, जीव नित्य है और यह प्रवाह चलता रहता है। अर्थात् अगला जन्म और देह की प्राप्ति होती रहती है। यद्यपि बीच में छूटता भी है जैसे, जगने के बाद सोना और सोने के बाद जगना। यह जगना सोना खत्म नहीं हो रहा, चल रहा है। वैसे तो रोज खत्म होता है लेकिन फिर भी चल रहा है। खत्म होने का मतलब यह नहीं कि खत्म हो ही गया। खाना रोज खत्म करते हो कि नहीं? देखो, खाते-खाते खाना बंद कर देते हैं फिर भी एक अर्थ में बंद नहीं करते। अभी बंद कर दिया कुछ देर बाद फिर भूख लगी, फिर खा लिया। इसी तरह सृष्टि और शरीर की प्राप्ति भी होती रहती है। यह बंद नहीं होती। एक शरीर छूटा, दूसरा मिलेगा। दूसरा शरीर छूटा तीसरा मिलेगा।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
ये शब्द आदि शंकराचार्य ने कहे हैं । ये शब्द किसी वैष्णव के नहीं हैं। इसका मतलब, देह की मृत्यु को वह भी इंकार नहीं करते। हाँ, उपाय कर रहे हैं कि यह ना हो। नास्तिक लोग शरीर को ही मैं मानते हैं, जीव भाव को नहीं मानते, आगे जन्म नहीं मानते। इसलिए वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। मैं एकबार रूस में बोला था कि नास्तिकता से मृत्यु की प्राप्ति होती है। जीव भाव से पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म से एक तरह से अमृत की प्राप्ति हुई। हम मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे, भले ही अगला जन्म हो । अर्थात् मृत्यु से हम बच गए।

गुरुदेव का वाक्य है जो हम सुना करते थे, हम कोई नई बात नहीं कहते। सूकर खेत में तुलसीदास ने सुनी थी तो वे कहते हैं कि तब मुझ में अज्ञान था, तब मैंने समझी नहीं। अब गुरु जी नहीं है तो समझ में आ गई। क्योंकि तब तो उनके पास रहते थे। जैसे कुत्ता या छोटा बच्चा अपने मालिक के साथ साथ जब रहता है तो निश्चिंत रहता है, ऐसे ही उस समय अपने को कोई परवाह ही नहीं थी। तो गुरुदेव यह कहा करते थे कि जब मैं नहीं रहूंगा तब लोग कहेंगे तुम अपने को ब्रह्म कहते हो, तब पता चलेगा! तो जैसे तुलसीदास जी को उस समय समझ नहीं आई पर जो सुना था तब नहीं, बाद में समझ आई। तो गुरुदेव कहते थे-

जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति, है बुद्धि की अवस्था
जगती है बुद्धि तुम जगे लगने लगते हो, आती है बुद्धि तुम आए लगते हो, सोती है बुद्धि तुम सोए लगने लगते हो, होती है बुद्धि तुम हूं लगने लगते हो। बुद्धि के कारण तुम हूं लगने लगते हो और बुद्धि जब नहीं रहती, लगना बंद हो जाता है। कहीं चले जाते हो ?मर जाते हो? ऐसा कुछ नहीं है ।इसलिए बुद्धि के कारण जितना मालूम पड़ता है बुद्धि के ही कारण बदलता भी रहता दिखता है। तो बुद्धि के रहते जब यह भ्रम टूट जाए कि मैं केवल बुद्धि तक नहीं हूं, जब बुद्धि नहीं थी मैं तब भी था और जहां बुद्धि नहीं है वहां भी मैं हूं, यह स्वीकार करना बहुत श्रद्धा का काम है! इसलिए श्रद्धावान लभते ज्ञानम्
केवल तर्क ही नहीं श्रद्धा! क्योंकि बार-बार हमारी बुद्धि कहेगी ‘मैं यहां नहीं हूं’ और हम देह में हैं! कब तक देह में है यह पता चलता है? जब तक मन, बुद्धि है। बुद्धि के न रहने पर आप देह में थे? कहां थे? तो सारी अनुभूतियां हमारी मन बुद्धि पर निर्भर है। पर थोड़ा सा श्रद्धा से समझोगे तो जब बुद्धि नहीं रहती नींद में, सुषुप्ति में तब देह आदि का विशेष ध्यान ही नहीं होता। जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति है बुद्धि की अवस्था!
मैें बुद्धि से परे हूं याते सदा शिवोsहम्।।

बुद्धि का आश्रय भी मैं ही हूं। तो बुद्धि का आश्रय मैं हूं और बुद्धि प्रत्यय जितने हैं उन अनुभूतियों का आश्रय भी मैं ही हूं साक्षी। इसलिए मैं बुद्धि से परे हूं! याते सदा शिवोsहम्! अब सदा शिव हूं ,कल्याण रूप हूं, जगता सोता नहीं हूं। बुद्धि से परे भी हूं और बुद्धि को धरे भी हूं। पर ऐसा भी नहीं ,जब बुद्धि है तब उसका आश्रय हूं। जैसे घड़े आदि उपाधि की मिट्टी आश्रय भी है। घड़ा किस में रहेगा? स्वतंत्र तो रह नहीं सकता तो कोई अनुभूति….. चाहे जागृत हो, स्वप्न या सुषुप्ति हो, कोई अनुभूति चेतन का आश्रय लिए बिना रह ही नहीं सकती। यहां तक यदि कोई यह सोचे कि इतनी देर मैं नहीं रहा। यदि यह सच्चा अनुभव है कि मैं नहीं रहा, अनुभव हुआ भले चाहे जैसा हो, यदि यह अनुभव हुआ तो किसे हुआ होगा आपके बिना? यदि अपने न रहने का आपको अनुभव हो गया कि इतनी देर मैं नहीं था या मुझे होश नहीं था तो होश के अभाव का साक्षी चेतन ही रहा होगा। यह कोई जड़ कहेगा क्या? क्या यह कोई जड़ कहेगा? इसका मतलब बेहोशी का साक्षी भी चेतन होता है। इसलिए बाहर भीतर एक रस जो चेतन भरपूर। विभु नभ सम सो ब्रह्म है ,नहीं नेरे नहीं दूर

चेतन कभी दूर भी नहीं होता। जागृत कभी दूर हो जाता है, सपना नजदीक हो जाता है। कभी नींद बहुत नजदीक होती है, कभी नींद चली जाती है। यह सब नेरे हो जाते हैं , दूर हो जाते हैं। पर अपना आप कब नेरे होगा? कब दूर होगा ? इसलिए नहीं नेरे नहीं दूर अपना आप कभी नजदीक नहीं होता, अपना आप कभी दूर नहीं होता अपने से। इसलिए दूर और पास होना, होना और खो जाना, जागना और सो जाना मायामात्र है सच्चाई नहीं। आत्मा को सही सही जानकर कोई कर्तव्य मोक्ष के लिए शेष नहीं रहता तो देखो जैसे मिट्टी घड़े के कभी पास हो सकती है, कभी घड़े का अभाव हो सकता है। कभी घड़ा है मिट्टी में, कभी नहीं। कहीं है कहीं नहीं। आपमें कभी अंतःकरण है कभी नहीं है। कभी कोई अवस्था है कभी नहीं है। आप कब अपने पास नहीं है? कब नहीं है? पर हममें ये अवस्थाएं है ही नहीं इसलिए इसको कहेंगे अनात्माध्यास। अनात्म में आत्मबुद्धि। यह मुझे “मैं” लगते हैं तो इन का अभाव मुझे मैं का अभाव लगता है। जागना मुझे अपना जागना लगता है। इसलिए जागने का अभाव मुझे अपना सोना लगता है। जबकि जागना और जागने का अभाव दोनों मेरे बिना नहीं हो सकते ।मेरे बिना जागना-सोना संभव ही नहीं। लेकिन यह गुरुदेव से सुना ,जाने क्या कहते थे……… ‘भ्रम ना सकै कोउ टार’
रजत सीपी मां भास जिमी यथा भानु कर बारि।

यद्यपि मृषा तिहूं काल में भ्रम ना सकै कोउ टार।।
गुरुदेव यह भी बोल देते थे कोई नहीं टाल सकता? गुरुजी को यह पसंद नहीं था। तो हमारा कैसे गया? (महाराज जी की तरफ देखते हुए) आपका कैसे गया? कोउ ना टार सकै यह गड़बड़ है ,तो कहते थे भ्रमण यह “भ्रमना” सकै कोउ टार । यह भ्रमना कोई कोई टार सकता है। भ्रमना अर्थात यह भटकना सकै कोउ टार अर्थात कोई टाल सकता है। यह गुरुदेव का तर्क है। हमारे गुरुदेव पढ़े नहीं थे पर ऐसा कुछ नहीं है जो क्लियर नहीं करते थे। इसी तरह यह जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति का बुद्धि से परे हूं यह तो लिखा है पर गुरुदेव “बुद्धि को धरे हूं” अपनी तरफ से बोलते थे। ऐसे ही विचार करके देखो प्यारे जगत बना है मन से यह तो बोल देते थे, अब कहीं उस कीर्तन में यह शब्द ही नहीं है तो गुरुदेव बोलते थे जगत बना है मन से फिर कहते मन बना है हमसे हमसे हमसे!!
मन कहां से आया? कहते थे हमसे!