‘यह सब (जगत) प्रतीतियां मुझ में है’ जब तक यह नहीं समझते इसी का नाम अज्ञान है। अज्ञान कुछ नहीं यह सब है तुमही में। पर मुझमें है ऐसा नहीं जानते। हम स्वयं उत्पन हुए जानते हैं पर हमसे सब उत्पन्न होता है ऐसा नहीं जानते। सब नहीं रहते यह जानते हैं पर हम नहीं रहते यह भी समझते है। यह जो अपने न रहने का और अपने पैदा होने का भ्रम है यह चला जाए बाकी आत्मा ज्ञानस्वरूप सदा थी और है। यदि वह ज्ञानस्वरुप न हो तो अज्ञान ही सिद्ध नहीं होता ।अज्ञान कौन सिद्ध करता? इसलिए अज्ञान का भी अधिष्ठान मैं हीं हूं। पर यह शुरू में नहीं ख्याल में आता ।बस यह ख्याल में आ जाए कि मैं सर्वाधिष्ठान हूं। गुरुदेव का मंत्र यही है – ॐ जगदाधार सर्वाधिष्ठान धात्रै नम:
ये जगत का आधार, आश्रय जो है वह मैं हूं। और गुरुदेव का मंत्र ‘जिस करके यह सब है ,जिसमें यह सब है ,जो सब में होकर सब को देखता है, जानता है सोsहम्। सोsहम् का उनका मंत्र का अर्थ। एक तो मंत्र और एक अर्थ। तो मंत्र तो सब जगह दिया ही जाता है सोsहम् शिवोsहम् लेकिन क्या मतलब है? तो कहे जिसमें यह सब है। यह ख्याल में आ जाए ‘जिसमें यह सब है’ जिस करके जिसके कारण सब है। “जो सब में होकर” यह जानबूझकर बोलते थे। केवल एक जगह हो कर सबको नहीं जानते, सब में होकर सब को जानते। सर्व का अधिष्ठान! यहां रहकर सर्वाधिष्ठान नहीं, सर्वाधिष्ठान तो सर्व में होता है। जैसे इस घड़े का आश्रय मिट्टी है , दूसरे घड़े का आश्रय भी मिट्टी है। कहां रह कर है? केवल इस घड़े में रहकर? या उस घड़े में भी रहकर? उस घड़े में रहकर मिट्टी उसका आश्रय है या यहां से उसका आश्रय है? हां! सब जगह रहके सर्वाश्रय है। इसलिए जब मैं अहंकार को लेकर सोचता हूं तो लगता है मैं सर्वाश्रय नहीं हो सकता। असल में चेतन ही सर्वाश्रय है सर्वाधिष्ठान है। यही भक्त का भगवान है । योगियों का आत्मा है। और ज्ञानियों का ज्ञानस्वरूप है। तो आप सब लोग……… देखो! कोई और उपाय कितना कर लो, अब दिल करे भी कि शरीर रहे पर नहीं रहेगा। दिल करें कि जागृत अवस्था बनी रहे पर नहीं रहेगी। शरीर बना रहे ये सबकी सोच है, ठीक है? और जागृत अवस्था बनी रहे यह सब साधकों की सोच है। हमें कहेंगे हम हमेशा सजग नहीं रहते , हम हमेशा सचेतन नहीं रहते। इसका मतलब तुम क्या हो? वृत्तिरुप हो? सदा नहीं रह पाते का मतलब वृत्ति के अभिमानी हो। असल में तो वृत्ति का जो साक्षी है वह कब नहीं रहता? पर अभी भी साधक वृत्ति को मुख्य “में” मानता है। इसलिए वाच्य अर्थ को त्याग जरा विज्ञान लक्ष्य में चित् जोड़ो वाच्य को छोड़ो। उस शब्द का वाच्य अंतःकरण वृत्ति अहंकार है या चेतन? यदि उसको तुम मैं मान लोगे तो एक समान नहीं ना रह पाओगे। यदि वृत्ती की प्रधानता से मैं सोचते हो तो एकरस कोई रह पाया नहीं चाहे कितना बड़ा कोई हो। तो साधना से क्या होगा? यह गुण साधन ते नहीं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोई कोई।। इस सत्य को कोई कोई गुरुओं की कृपा हो तो क्लियर होता है। नहीं तो लगे रहे कि एक समान नहीं रहता, हमेशा जागे नहीं रह पाते, हमेशा चेतन नहीं रहते ऐसी शिकायतें लिए आदमी बैठा रहता है। इसलिए गुरु कृपा हो तो गुरु कृपा से बात स्पष्ट हो जाए तो कुछ करना बाकी नहीं रहता।

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8,598 Comments

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