सुकरात की जब यह दशा हुई, तो अंत में वह और आनंदित हुआ। “मैं” आनंद में हूं। शरीर छूट रहा है। वह देख रहा है-आनंद में है; क्योंकि, वह मर ही नहीं रहा, वह देख रहा है, आनंद में है। वह तो जी रहा है और देख रहा है कि “मैं हूं”, “मैं हूं”। शरीर छूटता जा रहा है। शरीर शिथिल होता जा रहा है। अंत में वह कहने लगा कि देखो! इतने अंग और छूट गए, इतने कपड़े मैंने और उतार दिए। थोड़े उतारने और बाकी हैं। यह भी उतरने वाले हैं। इसलिए , आखिरी बार बोलता हूं; क्योंकि, बोलने का साधन जबान थी, वह भी उतार दे रहा हूं। चश्मा उतर जाएगा, देखना बंद हो जाएगा। “मैं” तुम्हें देख ना सकूंगा। लेकिन, यह मैं बताये देता हूं कि आंखें बंद हो जाएंगी, तो देखना बंद हो जाएगा। जबान उतर जाएगी, तो बोलना बंद हो जाएगा। परंतु , “मैं” जीवित हूं। आखिर समय तक “मैं” यह देखता चला जाऊंगा कि मौत क्या है? जो आखिरी समय तक मौत को देख लेता है, वह नहीं मरता है। जो आखिरी समय पर मौत को नहीं देखता, वह मर जाता है।
सुकरात तो बचता चला गया, बचता चला गया और मौत होती चली गई। जो बचता चला गया, वही देख पाया कि उसकी मौत कभी होती ही नहीं। यह तो वही देखता है, जो होश में होता है। इसलिए, बहुत बड़ी साधना की आवश्यकता है कि सजग होकर अपने जीवन को देखो। ऐसा कोई ही महापुरुष है, कोई ही निष्ठावान है, जो जीते जी मरने का अभ्यास करता है।
लोग कोठियां बनवाने में लगे हैं; अभी मृत्यु कि कौन सोचता है? यह कोठियां धरी रह जाएंगी, यह धन रखा हुआ रह जाएगा। कोई काम न आएगा। निर्भय होकर कोठियां बनाओ; खूब मकान बनाओ; लेकिन, मुक्त होकर बनाओ। जो पहले से अपना कल्याण नहीं कर पाते, अपना जीवन नहीं बना पाते; वे सत्य को नहीं पाते। वे जो कुछ पाएंगे, सब खो जाएंगे। अपने को तो पहले ही खो बैठे हैं। इसीलिए, सब खो देने वालों को इकट्ठा करो; लेकिन, स्वयं को तो पा लो। सब कुछ खोकर कोई स्वयं को पा ले, तो कोई हर्ज नहीं है, किंतु, लोग स्वयं को खो दें, इससे बड़ा अपराध संसार में नहीं है। उपनिषदों में आता है कि वे आत्महत्यारें हैं; बड़े ही कृपण लोग हैं; जो आत्मा को जाने बिना ही चले जाते हैं।
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